धर्म-संस्कृति-अध्यात्म

ईश्वर सर्वज्ञ है और जीवात्मा अल्पज्ञ है

आजकल मनुष्य का जीवन इतना व्यस्त हो गया है कि स्वाध्याय के लिए समय मिलना कठिन हो गया है। कई दैनिक कर्तव्य मनुष्य चाहकर भी पूरे नहीं कर पाता हैं। ऐसी स्थिति मे ईश्वर क्या है, कैसा है तथा जीवात्मा का स्वरूप कैसा है, इसको जानने की किसी को न इच्छा होती है न फुर्सत ही है। इसके दूसरी ओर हमारे ग्रामीण, अशिक्षित व अल्प शिक्षित व नगरीय बन्धुओं में भी धार्मिक भावनाओं की भूख भरी पड़ी है जिस कारण कुछ चालाक व कपटी लोग उन्हें अपना शिष्य या अनुयायी बना लेते हैं। वहां गुरूओं द्वारा उन्हें अपने गुरू में अन्ध-श्रद्धा रखना सिखाया जाता है और हमें लगता है कि उनके सत्संगों में जाना और वो जो कहें उसे सुनना ही उनका धर्म बन जाता है। मैं कौन हूं? इस प्रश्न का शास्त्रीय व सही उत्तर उन्हें वर्षों तक गुरूओं की सेवा सुश्रुषा करने पर भी नहीं मिलता है। यह बात और है कि यह उत्तर कठिन नहीं अपतिु सरल है, परन्तु सत्य ज्ञान देने से आजकल के गुरूओं का छद्म प्रयोजन पूरा नहीं होता। यहां इतना कहना ही अभीष्ट है कि हम और सभी प्राणी एक जीवात्मा हैं जो अति सूक्ष्म चेतन तत्व हैं। यह जीवात्मा अनादि, अनुत्पन्न, अविनाशी अमर, कर्मानुसार नाना योनियों में जन्म लेने वाला, कर्मानुसार सुख व दुख का उपभोग करने वाला तथा वेदानुसार सद्कर्मो वा सद्धर्म का पालन कर धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष को सिद्ध कर 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों का मुक्ति का सुख भोगने वाला है। हमें अपने जीवन से जुड़े सभी आध्यात्मिक व सामाजिक प्रश्नों का उत्तर महर्षि दयानन्दकृत सत्यार्थ प्रकाश ग्रन्थ से मिल सकता है।

 

आज के इस लेख में हम ईश्वर के एक गुण, सर्वज्ञता पर विचार कर रहे हैं। सर्वज्ञ का अर्थ है कि सब कुछ जानने वाला। ईश्वर के इस गुण व इसके साथ अन्य कुछ गुण व शक्तियों के कारण ही वह इस संसार को बनाता, चलाता, प्रलय करता और पुनः सृष्टि की रचना करता है। यदि ईश्वर में सर्वज्ञता का गुण होता तो यह संसार बन ही नहीं सकता था। हमारे वैज्ञानिक छोटे से छोटा आविष्कार करते हैं तो उसमें बौद्धिक ज्ञान की आवश्यकता पड़ती है। उस ज्ञान को बहुत से शिक्षित लोग भी जान व समझ नहीं पाते। हम लोग तो बिना सिखाये उन आविष्कृत वस्तुओं का प्रयोग भी नहीं कर पाते। जिस प्रकार एक साईकिल तक चलाने के लिए कई बार अभ्यास करना पड़ता है और उसको चलाना सिखना पड़ता है, उसी प्रकार से ईश्वर भी वैज्ञानिकों की भांति अपने सर्वज्ञ ज्ञान से इस संसार की रचना करता है। ईश्वर के ज्ञान की यदि बात करें तो संसार के सभी वैज्ञानिक मिल कर भी इतना ज्ञान नहीं रखते जितना ईश्वर अकेला रखता है। यही कारण है कि वैज्ञानिकों ने कृत्रिम पदार्थ तो अनेक बना लिये हैं परन्तु मनुष्य के शिर का बाल या एक नाखून तक का वह आविष्कार नहीं कर सके जो ईश्वर के बनाये बाल व नाखून के पूरी तरह से समान हो। इस सर्वज्ञ ज्ञान होने के कारण ईश्वर ने सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, पृथिवीस्थ सभी पदार्थ, मनुष्यों व इतर प्राणियों के शरीर आदि बनाये हैं और सर्वज्ञता के ज्ञान से ही वह सारे संसार का संचालन आदर्श रूप में कर रहा है। ईश्वर सर्वज्ञ होने से सृष्टि के बारे में हर प्रकार का ज्ञान रखता है और इसके अतिरिक्त अपनी सर्वव्यापकता, अनादिता, नित्यता, सर्वशक्तिमानत्व, आनन्दस्वरूप होने के कारण वह सत्व, रज व तम गुणों वाली सूक्ष्म जड़ कारण रूप प्रकृति से सृष्टि को बनाता है।

अतः ईश्वर की सर्वज्ञता उसके सर्वव्यापकत्व के गुण पर भी मुख्यतः निर्भर है। यदि वह सर्वव्यापक न होता तो वह सर्वज्ञ कदापि नहीं हो सकता था। क्योंकि एकदेशी अर्थात एक स्थान पर रहने वाली सत्ता को अपने अन्दर व इर्द-गिर्द का भी ज्ञान होना ही सम्भव है, अपने से दूर व सूदूरस्थ स्थानों का ज्ञान नहीं हो सकता।  इसको इस प्रकार से भी समझ सकते हैं कि हमें नेत्र इन्द्रिया से वस्तुओं का दर्शन होता है। नेत्र हमारे शिर में सामने की ओर हैं। अतः हम आगे कुछ दूर की वस्तुओं को ही देख सकते हैं, बहुत दूर व अनन्त दूरी पर स्थित वस्तुओं को नहीं। हम बिना घूमें अपने पीछे की पास की वस्तुओं को भी नहीं देख पाते। एकदेशी जीवात्मा का यह ज्ञान अल्पज्ञ कहलता है। मनुष्य का जीवात्मा एकदेशी है, अतः इसका ज्ञान भी सर्वज्ञ न होकर अल्पज्ञ है। अपने अल्पज्ञ ज्ञान को वह ईश्वरोपासना, वेदादि शास्त्रों का अध्ययन, माता-पिता-आचार्य व समाज के ज्ञानी पुरूषों की संगति कर अपने ज्ञान में वृ़िद्ध कर सकता है परन्तु यह ज्ञान वृद्धि एक सीमा तक ही होती है। सर्वज्ञता की स्थिति जो ईश्वर को प्राप्त है, वह स्थिति जीवात्मा को कभी भी प्राप्त नहीं हो सकती।

 

इस लेख में हमने यह जाना है कि ईश्वर के अनन्त गुणों में से एक गुण है सर्वज्ञता जीवात्माओं में यह गुण ईश्वर से अतिन्यून अल्पज्ञता के रूप में विद्यमान है।  ईश्वर के इस गुण में उसका सर्वव्यापक होना भी एक महत्वपूर्ण कारण है। यदि ईश्वर सर्वव्यापक न होता तो उसमें यह गुण नहीं हो सकता था। यह भी महत्वपूर्ण तथ्य है कि ईश्वर का यह गुण अनादि व नित्य है और हमेशा-हमेशा उसके साथ रहेगा। यह ईश्वर का स्वाभाविक गुण है। स्वाभाविक गुण हमेशा अपने गुणी के साथ रहते हैं। ईश्वर यदि चाहे भी तो इसका त्याग नहीं कर सकता। यद्यपि यह प्रश्न निरर्थक है कि क्या कभी ईश्वर ऐसा चाह सकता है। ईश्वर की उपासना में इस गुण सर्वज्ञता का चिन्तन करने से उपासक को लाभ मिलता है। उपासना में ईश्वर से संगति होती है और सर्वज्ञता का चिन्तन करने से जीवात्मा की अल्पज्ञता में गुण-वर्धन होता है। यह गुण वर्धन यहां तक होता है कि वह ईश्वर के सत्य स्वरूप को जानकर उसमें स्थित व स्थिर हो जाता है। यह स्थिति सिद्ध योगियों को ही प्राप्त होती है। इसका अभ्यास कोई साधारण से साधारण मनुष्य भी कर सकता है।

हमारे गुरूकुलों व आर्यसमाजों में उपासना सिखाई जाती है। महर्षि दयानन्द ने इसके लिए उपासना विषय पर सन्ध्या पद्धति नाम की पुस्तक भी लिखी है। उसको पढ़कर उपासना के क्षेत्र में प्रवृत्त हुआ जा सकता है। उपासना में नैरन्तर्यता से ध्यान स्थिर होता है और ध्यान की स्थिरता से वह स्थिति प्राप्त होती है जो जीवन का लक्ष्य है। इस स्थिति को समाधि कहा जाता है। समाधि में ईश्वर जीवात्मा या उपासक अथवा योगी को अपने सत्य स्वरूप का निभ्र्रान्त ज्ञान कराता है जिससे योगियों के सभी संशयों की निवृत्ति हो जाती है। ईश्वर के स्वरूप का यह प्रकाश कुछ इसी प्रकार का होता है जिस प्रकार से एक स्त्री अपने स्वरूप का प्रकाश अपने पति के सम्मुख करती है। समाधि में होने वाला ईश्वर के स्वरूप का प्रकाश इस प्रकार भी समझा जा सकता है कि जैसे कोई सच्चा गुरू अपने समस्त ज्ञान का प्रकाश अपने शिष्य पर करता है और उससे उम्मीद करता है कि वह उस ज्ञान को आगे बढ़ाये। महर्षि दयानन्द के गुरू दण्डी स्वामी विरजानन्द ने भी अपने समस्त ज्ञान का प्रकाश महर्षि दयानन्द पर किया और उनसे अनुरोध किया कि वह चाहते हैं कि दयानन्द जी उनसे प्राप्त अपने समस्त ज्ञान का प्रकाश सारे देश विश्व की जनता को करायें। इसी प्रकार से ईश्वर सिद्ध योगी व उपासक पर अपने स्वरूप व ज्ञान का प्रकाश कर देता है। जो लोग उपासना करते हैं और उन्हें योग की सिद्धियां प्राप्त हैं, वह चाहे किसी मत के अनुयायी हों, उनका पुनीत कर्तव्य है कि वह उस ज्ञान से देश की जनता को लाभान्वित करें। यदि वह ऐसा नहीं करते तो यह उनकी स्वार्थ की प्रवृत्ति व अज्ञान ही कहा जा सकता है।

 

हम समझते हैं कि ईश्वर के सर्वज्ञ होने व जीव के अल्पज्ञ होन का कुछ ज्ञान पाठको को हो गया होगा। हम अनुरोध करते हैं कि सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों का निरन्तर स्वाध्याय वा अध्ययन कर इस विषय व अनेक अनेक आध्यात्मिक व सामाजिक विषयों का ज्ञान प्राप्त कर पाठक अपने जीवन को सफल बनाये।

मनमोहन कुमार आर्य

4 thoughts on “ईश्वर सर्वज्ञ है और जीवात्मा अल्पज्ञ है

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    मन मोहन जी , लेख बहुत अच्छा है , सच्ची बात कहूँ , मैं इतना धार्मिक नहीं हूँ लेकिन आप के लेख बहुत अछे होते हैं . मैं तो एक सीधा साधा इंसान हूँ , बस यह ही कोशिश सारी जिंदगी की है कि किसी का बुरा ना हो जाए , कई दफा जिंदगी में किसी ख़ास बात को लेकर झूठ भी बोलना पड़ा , लेकिन खामखाह छोटी छोटी बात पर झूठ बोलना , डब्बल स्टैंडर्ड रखना , किसी से नफरत करना , किसी का नुक्सान करना , किसी को दुःख देना , चोरी करनी , हेराफेरी करनी , इन बातों से मुझे सख्त नफरत है . जिंदगी में परमात्मा के बारे में बहुत सोचना चाहा लेकिन मेरी समझ से बाहिर है . मैं तो इस बात पर यकीन रखता हूँ कि वजाए इस के कि हरदम भगवान् के गुण गाएन्न करूँ , सच्चे रास्ते पर चलना मुझे बहुत आसान लगता है किओंकि इस में कोई मिहनत नहीं करनी पड़ती , सिर्फ अपने आप को बदलना जरुरी है जो इतना मुश्किल नहीं है .

    • Man Mohan Kumar Arya

      नमस्ते श्री गुरमेल सिंह जी, लेख आपको पसंद आया, इसके लिए धन्यवाद। धर्म एक व्यापक शब्द है जिसका अर्थ मनुष्य का अच्छा आचरण है। किसी का बुरा न करना भी धर्म के अंतर्गत आता है। जहाँ तक झूठ बोलने का प्रश्न है, यह किन परिस्थियों में बोला गया है, उस पर निर्भर करता है। अपने स्वार्थ के लिए झूठ ना बोलना तथा देश व समाज हित के लिए बोला जाने वाला झूठ और आम झूठ में बहुत अंतर होता है। कई परिस्थितियों में झूठ बोलना भी धर्म होता है। लाहोर में शहीद भगत सिंह और उनके दो साथियों राजगुरु एवं सुखदेव ने सांडर्स को गोली मारी थी। डी ए वी कॉलेज सामने था। वहां सामने बाहर ३ विद्वान बैठे शोध अध्ययन में व्यस्त थे। पंडित भगवत दत्त, ठाकुर अमर स्वामी जी आदि। भगत सिंह जी उनके सामने से ही भागे थे। यह लोग भगत सिंह जी जानते भी थे। खुद भी देश प्रेमी थे। गोली मारने के कुछ देर बाद ही पुलिस वाले उनके पास पहुंचे और पूंछा कि क्या तुमने कुछ युवकों को यहाँ से भागते हुए देखा है? उन्होंने बहाना बनाया जिसका अर्थ था नहीं देखा है। जांच हुई परन्तु सब कुछ जानते हुए भी इन व्यक्तियों ने सत्य नहीं बोला। इसका कारण देश व समाज का हित था. अतः यह कोई अधर्म नहीं था। सारे देश को इन विद्वानो पर फक़्र है। आपके सारे गुण सद्धर्म के अंतर आते है। इतना भी जानना कि इस संसार को बनाने वाला और हमें जन्म देने वाला कोई है, यह ज्ञान और उसको मन या ह्रदय से धन्यवाद कर देने से ईश्वर की कुछ भक्ति और इबादत हो जाती है। सत्य का पालन सबसे बड़ा धर्म है, आप इसका पालन करते है, अतः ईश्वर आपसे प्रसन्न है। स्वामी श्रद्धानन्द नास्तिक थे। उन्होंने बरेली में महर्षि दयानंद से ईश्वर के अस्तित्व पर अनेक प्रसन्न पूछे। महर्षि ने उन्हें निरुत्तर कर दिया। अगले दिन फिर बचे खुचे प्रश्न ले कर गए, फिर निरुत्तर हो गए। तब उन्होंने महर्षि दयानंद जी से कहा कि यद्यपि आपने मुझे निरुत्तर कर दिया, परन्तु मुझे ईश्वर के अस्तित्व में विश्वास अब भी नहीं हुआ है। इस पर महर्षि ने कहा, प्रश्न का उत्तर देना और बात है और विश्वास दिलाना और बात। ईश्वर पर तुम्हे विश्वास तभी होगा जब ईश्वर की तुम पर कृपा होगी अर्थात ईश्वर ही तुम्हे स्वयं विश्वास दिलाएंगे। यह दिन भी उनके जीवन में आये और वह ऐसे ईश्वर भक्त बने कि इतिहास में ऐसे बहुत काम लोग हुए होंगे? आज भी उस साधारण व्यक्ति का यश व कीर्ति विद्यमान है। एक बात और लिखने की इच्छा हो आयी। एक बार एक रुई धुनने वाले अशिक्षित व्यक्ति ने दयानंद जी से कहा कि मैं तो अज्ञानी हूँ, मेरा कल्याण कैसे होगा। इस पर करुणासागर दयानंद बोले कि तुम जिस व्यक्ति की रुई धुनों उंसकी पूरी रुई धुन कर उसे लौटा दो, उसमे बेईमानी मत करना, तुम्हारा अवश्य कल्याण हो जायेगा। आदरणीय गुरमेल जी, मै कोई ज्ञानी नहीं हूँ, कुछ पुस्तके पढ़ी है, विद्वानो के प्रवचन व उपदेश सुने है और बहुत से विद्वानों की संगती की है, यह मेरा परिचय है। मैं यह सब बातें लिखने का अधिकारी नहीं हूँ। तथापि आपकी मेल पढ़कर स्वयं को रोक न सका। क्षमा प्रार्थी हूँ। सादर।

  • विजय कुमार सिंघल

    अच्छा लेख.

    • Man Mohan Kumar Arya

      हार्दिक आभार एवं धन्यवाद।

Comments are closed.