एक लहर
किसी न पढ़ी गयी किताब की तरह
उसे खोजता हूँ
पुस्तकालय या बाज़ार में
या फिर पीपल की छाँव से पूछता हूँ
वो- यहाँ आयी थी क्या कभी …?
कभी लगता है
अभी -अभी -इसी ट्रेन में बैठ कर चली गयी ..वह
हर बार ,हर समय ,हर जन्म में मुझे लगता है –
कुछ छूट रहा है मुझसे
जैसे ….मेरे पहुँचने से ठीक पहले –
कोई ले गया हो वह पेंटिंग जिसे –
मैं खरीदना चाहता हूँ
खाली गिलास की तरह मैं प्यासा ही रह जाता हूँ
वह पानी की तरह बहती हुई
मेरी पहुँच से -बहुत दूर निकल जाती है
क्या मैं सिर्फ़ इंतज़ार करता हुआ तट हूँ …
या उसके बिना विरह को जीता हुआ
वीराने का एकाकी लम्बा पुल हूँ
और …. वह कभी न लौट कर
आने वाली एक लहर
यदि तुम ….मेरी आत्मा हो ..तो ..सच बतोओ …
कितनी बाहर हो और कितनी मेरे भीतर
मैं तुम्हें इन उन्गलियो से छूना चाहता हूँ …..
या तुम ही पहचान लो मुझे …..
मेरा कौन सा नाम ,रंग ,चेहरा पसंद है तुम्हें ?
रूप बदलते ….बदलते …..थक चुका हूँ मैं .
किशोर कुमार खोरेंद्र
बहुत अच्छी है जी .
dhnyvaad
बढ़िया !
shukriya