उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 25)

मेरे अनेक अन्य पत्र मित्र भी रहे हैं। यदि उन सबका विस्तार से परिचय दूँ तो मेरी कलम को कभी आराम नहीं मिलेगा। अतः मैं नामोल्लेख करके ही उन्हें कृतज्ञतापूर्वक स्मरण कर लेता हूँ – कासिम रज़ा जाफरी (अलीगढ़, मुरादाबाद), मोहम्मद आबिद (बिजनौर), सैयद मुहम्मद अली इकबाल (बाँदा, बम्बई), बृजेश कुमार गुप्ता ‘पथिक’ (कानपुर), भास्कर (अरूणाचल प्रदेश), अजय कुमार मूँदड़ा (अमरावती, बिहार), कंचन मजूमदार (राँची), विनय कुमार अग्रवाल (चन्दौसी), सुरिन्दर पाल भंडारी (फिरोजपुर सिटी), संजय अग्रवाल (मेरठ)।

इनमें एक नाम शामिल नहीं है और वह मैंने इसलिए शामिल नहीं किया है कि यदि मैं केवल उसके नाम का उल्लेख करूँ और विस्तार में न लिखूँ, तो मैं स्वयं को कभी माफ नहीं कर पाऊँगा। वह नाम है मेरे परम मित्र और हितैषी कुलवन्त सिंह गुरु का, जिसे मैं ‘कुलवन्त’ कह कर पुकारा करता हूँ। मूलतः वे मेरे पत्र मित्र थे, लेकिन कालान्तर में हमारे बीच ऐसी सभी प्रकार की औपचारिकताएं समाप्त हो गयीं और हम ऐसे मित्र बने जिस पर किसी को भी गर्व हो सकता है। वे एक सिख हैं। लेकिन सिर्फ यह उनका पूरा परिचय नहीं है। अब तक सैकड़ों सिख भाइयों के सम्पर्क में मैं आ चुका हूँ लेकिन यदि मुझे उनमें से सर्वश्रेष्ठ का चुनाव करना हो तो मेरे सामने कुलवन्त के अलावा कोई विकल्प नहीं होगा। पता नहीं लोग क्यों कहा करते हैं कि सिखों में अक्ल नहीं होती। मेरा दावा है कि यदि वे एक बार कुलवन्त से मिल लें तो सदा के लिए सरदारों का मजाक उड़ाना छोड़ देंगे। जिस समय हमारी पत्र-मित्रता शुरू हुई थी, मैं एम.स्टेट. में पढ़ रहा था और वे दिल्ली में रहकर काॅस्ट एण्ड वक्र्स एकाउन्टेंसी (आई.सी.डब्लू.ए.) का कोर्स कर रहे थे।

पहले हम में साधारण पत्र व्यवहार ही था और मैं उनके बारे में ज्यादा उत्साहित भी नहीं था। लेकिन जब मैं दिल्ली में रहने लगा तो वे मेरे होस्टल में एक दिन मिलने आये। जब मुझे उनकी महानता का आभास मिला। उसके बाद मैं भी कई बार उनसे मिलने गया और हर बार मैं उनसे पहले से ज्यादा प्रभावित हुआ। उनका ज्ञानकोष मेरी तुलना में कहीं विस्तृत था, यद्यपि विज्ञान विषयों में वे कहीं नहीं थे। लेकिन दुनियादारी और सामान्य ज्ञान के मामले में वे मुझसे बहुत आगे बढ़े हुए थे। उनका स्वास्थ्य काफी अच्छा था। उनका हृदय उससे भी अधिक विशाल और उदार था। वे खर्च के मामले में कभी कंजूसी नहीं करते थे और अपने मित्रों पर खर्च करने में भी संकोच नहीं करते थे। लेकिन यदि कोई उनकी उदारता का गलत फायदा उठाने की कोशिश करता था, तो वे सतर्क हो जाते थे। इस मामले में हम दोनों के विचार एकदम मिलते थे।

धीरे-धीरे हमारी घनिष्टता बढ़ती गयी। एक साल बाद उन्होंने आगरा में उसी इंस्टीट्यूट में मास्टर आॅफ सोशल वर्क (एम.एस.डब्ल्यू.) करना शुरू किया, जहाँ से मैं एम.स्टेट. कर चुका था। वे आगरा में राजामण्डी नामक मुहल्ले में रहते थे, जो हमारे तत्कालीन मकान, जो पी. एण्ड टी. कालोनी में था, से काफी दूर है। फिर भी मैं आगरा जाने पर उनसे मिलने एक-दो बार अवश्य जाया करता था। वहाँ वे मुझे पुलाव बनाकर खिलाया करते थे। पुलाव बनाने का तरीका मैंने उनसे ही सीखा।

एम.एस.डब्ल्यू. पूरा करने के बाद वे अपने कस्बे मानसा चले गये थे और आजकल वहीं किसी जगह नौकरी कर रहे हैं। इधर दो साल से हमारी मुलाकात नहीं हुई है, लेकिन कभी-कभी पत्र व्यवहार होता रहता है। हर दीपावली पर उनका एक कार्ड मेरे पास अवश्य आता है, जिस पर प्रायः गुलाब के फूल छपे होते हैं। उन्हें अच्छी तरह मालूम है कि मुझे फूलों से खास तौर पर गुलाब के फूलों से बहुत प्यार है। शहनाज तथा मेरे अन्य अधिकांश मित्र भी मुझे गुलाब के फूलों वाले कार्ड भेजा करते थे।

कुलवन्त ने कई बार मुझे अधिकारपूर्वक डाँटा भी है, जिसका मैं कृतज्ञ हूँ। पहली बार उन्होंने मुझे तब टोका था जब मैं उन्हें ‘सरदार’ कह कर पुकारा करता था। उसने ही पहली बार मुझे समझाया कि ‘सरदार’ कहलाना मुझे पसन्द नहीं है। तब से मैं उसे ‘कुलवन्त’ कहा करता हूँ। वह भी मुझे सिंघल या अंजान की बजाय विजय कहकर बुलाया करता है। उसे मेरा शर्ट या बुशशर्ट को पैन्ट से बाहर निकाले रखना बहुत नापसन्द था। उसी की सलाह से अब मैं सदा शर्ट को पैन्ट के अन्दर रखता हूँ। अन्य कई अवसरों पर भी उसने मेरी गलतियों को सुधारा है।

मैंने उससे एक बार पंजाबी भी सीखी थी। मैं पंजाबी अखबारों की हैड लाइनें (शीर्षक) पढ़ने लगा था, लेकिन बाद में सब भूल गया। उसकी रुचि काफी साहित्यिक थी। कई अच्छी पंजाबी और अंग्रेजी कविताओं को उसने मुझे समझाया था। कुल मिलाकर कुलवन्त मेरा एक ऐसा मित्र है, जिस पर मुझे गर्व है।

(पादटीप : कुलवंत से मेरा संपर्क वाराणसी पहुँचने के कुछ समय बाद ही टूट गया था. उस समय वे अमृतसर में नॅशनल इन्शुरन्स कंपनी में कार्य कर रहे थे. जब मैं  स्थानांतरित होकर पंचकूला पहुंचा, तो लगभग 18 वर्ष बाद मेरी उनसे पुनः मुलाकात हुई, जिसकी कहानी बहुत रोचक है. इसे विस्तार से आत्मकथा के तीसरे भाग में लिखा है. कुलवंत आजकल भरत सरकार में एक बहुत ऊँची पोस्ट पर हैं और देहरादून में रह रहे हैं. मेरा उनसे संपर्क बना हुआ है.)

मेरे एक तमिल मित्र भी रहे हैं- थाना शेखर। यों उसका सही नाम ‘धाना शेखर’ है, जिसका अर्थ होता है- धन एकत्र करने वाला अर्थात् कुबेर। तमिल में भी यही लिखा जाता है, लेकिन उसके प्राइमरी अध्यापकों के अधकचरे अंग्रेजी ज्ञान ने उनका नाम बिगाड़कर ‘थानाशेखर’ कर दिया था। इसका एक कारण यह भी है कि तमिल में त, थ, द और ध सबके लिए एक ही अक्षर होता है, जिसका उच्चारण शब्द के अनुसार अलग-अलग किया जाता है, लेकिन अंग्रेजी में ‘th’ लिखा जाता है। इसलिए ‘धाना’ को ‘Thana’ लिखा गया। उसका उच्चारण अंग्रेजी में ‘थाना’ किया जाता था। यही नाम अब उसका पेटेन्ट बन चुका है।
आप तमिल युवकों के आदर्श प्रतिनिधि हो सकते हैं। एकदम काला रंग, थोड़े बाहर निकले दाँत, फूले हुए नथुने, कद कुछ ठिगना और माथे पर लाल सिन्दूरी लकीर। यानी कोई भी उसे देखकर बिना सोचे बता सकता था कि यह तमिल है। उसका रूप-रंग तमिलों का ऐसा औसत है कि एक बार जब मैं मद्रास गया था तो वहाँ के सारे लोग मुझे थानाशेखर ही नजर आ रहे थे। कह नहीं सकता कि यह मेरी नजर का चक्कर था या दिमाग का।

थानाशेखर मेरा एम.स्टेट. का सहपाठी था। प्रारम्भ में आम उत्तर भारतीय युवकों की तरह मैं भी हर दक्षिण भारतीय युवक को खास तौर पर तमिलों को हिन्दी विरोधी मानता था। लेकिन उसके सम्पर्क में आने पर मुझे उल्टा ही महसूस हुआ। उसका अंग्रेजी ज्ञान औसत उत्तर भारतीय छात्रों जैसा ही था। लेकिन हिन्दी सीखने की लगन उसमें ऐसी थी कि दो चार महीने में ही वह न केवल साफ हिन्दी बोलने लगा था, बल्कि कभी-कभी हिन्दी अखबारों के शीर्षक भी पढ़ लेता था। हिन्दी फिल्में समझना तो सबसे लिए आसान होता ही है।

प्रारम्भ में हम दोनों में उतनी घनिष्टता नहीं थी। इसका कारण मेरे अपने पूर्वाग्रह ही थे। वह पढ़ने में औसत दर्जे का ही था और पहले सेमिस्टर में दो कोर्सों में उत्तीर्ण हो जाने के बाद भी दूसरे सेमिस्टर के तीनों कोर्सों में फेल हो गया था, जिसका मुझे काफी दुःख था। वह तीन साल में एम.स्टेट. कर सका था और तब तक मैं दिल्ली में पढ़ने लगा था।

उसमें एक खराब बात यह थी (और है) कि वह बहुत आलसी था। जब भी उसका मूड आॅफ होता था (जो कि ज्यादातर आॅफ ही रहता था), तो वह खाट पर पड़ जाता था। अपने आलसीपन का परिणाम उसे भोगना भी पड़ा। लेकिन वह इतना मेहनती भी था कि दबाब पड़ने पर दिन-रात काम में जुटा रह सकता था। मुझे याद है कि एक बार वह बहुत गंभीरता से बैंक में क्लर्क बनने के लिए एक परीक्षा की तैयारी कर रहा था। यह उन दिनों की बात है, जब उसका एम.स्टेट. पूरा भी नहीं हुआ था। कहावत है कि परिश्रम कभी निष्फल नहीं जाता। अतः उसका चयन पंजाब नेशनल बैंक में हो गया।

एम.स्टेट. पूरा होते न होते उसकी नियुक्ति (पोस्टिंग) भी हो गयी जो अलीगढ़ शहर में हुई। अलीगढ़ आगरा से कोई ज्यादा दूर नहीं है। कभी-कभी दिल्ली आते-जाते समय मैं अलीगढ़ होकर आता-जाता था और उससे मुलाकात करता था। हम दोनों में बहुत अच्छी पटती थी। हम दोनों ही काफी हँसमुख हैं। प्रायः एक दूसरे को नये-नये चुटकले सुनाकर एक दूसरे का मनोरंजन और ज्ञानवर्द्धन किया करते थे। एक-दो बार हमने साथ-साथ फिल्में भी देखीं।

वह कई साल अलीगढ़ में रहा। जब तक वह अलीगढ़ में था, हमारा नियमित पत्र व्यवहार होता था, फिर उसने कोशिश करके अपना स्थानान्तरण अपने ही प्रान्त के एक जिले कोयम्बटूर में करा लिया और आजकल वहीं पर है। उसके पत्र आते रहते हैं। लेकिन दो साल से मैंने उसे देखा नहीं है। मुझे उसकी बहुत याद आती है। पता नहीं हम दोनों का मिलना अब कब हो पायेगा।

(पादटीप : श्री थानाशेखर इस समय तमिलनाडु के किसी गाँव में पंजाब नॅशनल बैंक की शाखा में मेनेजर के रूप में सेवा कर रहे हैं. मेरा उनसे संदेशों द्वारा संपर्क बना हुआ है. लेकिन दर्शन नहीं हो पाए.)

मेरे बहुत से मित्र आन्ध्रप्रदेश के निवासी रहे हैं। जिनमें से कई बहुत घनिष्ट भी हुए। ज्यादातर दिल्ली में ही बने थे। उनका जिक्र अगले अध्याय में करूँगा। दिल्ली जाने से पहले मेरे जो आन्ध्रप्रदेश के दो मित्र बने, उनमें से एक एल.यू. विजय कुमार का जिक्र पहले कर चुका हूँं। यहाँ एक और घनिष्ट मित्र का जिक्र करूँगा वे हैं – शिवराम कृष्णैया, जिसे वह तेलगू के प्रभाव में ‘सिवारामा’ लिखता है, लेकिन मैं उसे शुद्ध रूप में ‘शिवराम’ कहा करता हूँं।

मेरे सम्पर्क में आये हुए आंध्रप्रदेश के ज्यादातर लड़के और चाहे कुछ न हों, प्रतिभाशाली अवश्य हैं। उनमें भी शिवराम कृष्णैया असाधारण रूप से प्रतिभाशाली है। कई विषयों में उसका ज्ञान विस्तृत है। इससे भी अधिक है उसकी ज्ञान प्राप्त करने की लालसा। कई बार उसकी इस लालसा से ही मैंने उसे अपने ज्ञान भण्डार में बहुमूल्य मोतियों को जोड़े जाते देखा है।

आजकल वह वैज्ञानिक एवं औद्योगिक अनुसंधान परिषद (सी.एस.आई.आर.) में एक अच्छे पद पर है। अल्प समय में ही उसने कई कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग की कई भाषाओं का ज्ञान प्राप्त कर लिया है और केवल अपने कठिन परिश्रम के कारण ही वह अपने विभाग में अधिकारी न होते हुए भी काफी महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गया है। ऐसा सौभाग्य तो मुझे भी नहीं मिला। आज भी वह बहुत कठिन परिश्रम करता है और आई.आई.टी. दिल्ली में पार्ट टाइम पी.एच.डी. कर रहा है। वह मेरा बहुत आदर करता है। जब मैं दिल्ली में ही था, तब से वह वहीं सर्विस कर रहा है। अब भी मैं जब कभी दिल्ली जाता हूँ, उससे कम से कम एक बार मिले बिना मुझे चैन नहीं पड़ता। उसके पत्र नियमित रूप से आते रहते हैं। उसकी श्रीमती भी उसकी सच्ची जीवन संगिनी हैं। उनके हाथ की इडली खाना मुझे बहुत पसन्द है। उनके एक पुत्र भी है।

(पादटीप : श्री शिवराम कृष्णैया से भी मेरा संपर्क बीच में टूट गया था. अब पुनः स्थापित हो गया है. आजकल वे दिल्ली में ही भारत सरकार के एक विभाग में बहुत ऊँचे पद पर हैं. उनके पुत्र और पुत्री भी उच्च शिक्षा प्राप्ति के बाद अच्छे सरकारी पदों पर कार्य कर रहे हैं.)

लेकिन यदि अपने इन मित्रों के साथ मैं उन ‘मित्रों’ का जिक्र न करूँ जिन्होंने गाढ़े समय में मुझे धोखा दिया था, जो सदैव मेरे खिलाफ बोलते रहे, तो यह विवरण अधूरा ही रहेगा। ऐसे लोग प्रायः अपने मतलब के लिए मेरे ‘मित्र’ बन जाते थे और मतलब निकल जाने पर न केवल मुझसे कतराते थे बल्कि उल्टे मेरे साथ बुराई करने की भी कोशिश करते थे। जूनियर हाईस्कूल, हाईस्कूल तथा इन्टर में मेरे अधिकतर सहपाठी ऐसे ही थे। लेकिन यहाँ मैं उनके नामों का उल्लेख करके उन्हें अनुचित महत्व नहीं देना चाहता। लेकिन जब भी मैं उनके द्वारा अपने साथ किये गये व्यवहार का विश्लेषण करता हूँ, तो ऐसा कोई कारण नहीं ढूँढ़ पाता, जो उनके व्यवहार का स्पष्टीकरण दे सके। ऐसे दोस्त वास्तव में दुश्मनों से भी बुरे होते हैं। किसी ने सही कहा है-
दोस्तों से हमने वो सदमे उठाये जान पर।
दिल से दुश्मन की अदावत का गिला जाता रहा।।

इससे भी बड़ी संख्या मेरे उन दोस्तों की भी है जिन्होंने प्रत्यक्षतः तो मेरा कोई बुरा नहीं किया, लेकिन आवश्यकता के समय मेरी मदद करने से पीछे हट गये। किसी ने कहा है-
हमें भी आ पड़ा है दोस्तों से कुछ काम यानी।
हमारे दोस्तों के बेवफा होने का वक्त आया।।

यहाँ मैंने एम.स्टेट. तक के अपने मित्रों तथा पत्र मित्रों का जिक्र किया है। आगे भी मुझे ढेर सारे सच्चे और झूठे मित्र मिले, जिनका उल्लेख अगले अध्यायों में करूँगा।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

5 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 25)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , आप की जीवन कहानी तो बहुत दिलचस्प है . एक बात तो पता चल ही गिया कि आप बहुत अछे इंसान हैं , तभी तो इतने मित्र आप को मिले . इतने मित्रों में कुछ तो बुरे हो ही सकते हैं . मेरा खिआल है हर एक की जिंदगी में बुरे लोग भी आ ही जाते हैं , और कुलवंत सिंह आप के अछे मित्तर रहे तो आप की पंजाबी फिर से याद करा दूँ , ਵਿਜਯ ਭਾਈ ਜੀ ਤੁਸੀ ਇਕ ਨੇਕ ਇਨਸਾਨ ਹੋ , ਬਾਕੀ ਸਰਦਾਰਾਂ ਦੀ ਇਹ ਗਲ ਆਮ ਹੈ ਕਿ ਸਰਦਾਰ ਦਾ ਦਿਮਾਗ ਨਹੀਂ ਹੁੰਦਾ ਜਾਂ ਸਰਦਾਰਾਂ ਦੇ ਬਾਰਾਂ ਛੇਤੀ ਵਜ ਜਾਂਦੇ ਹਨ , ਹ ਹ ਹ , ਖੈਰ ਕੁਲਵੰਤ ਸਿੰਘ ਤੁਹਾਡੇ ਅਛੇ ਦੋਸਤ ਰਹੇ , ਜਾਣ ਕੇ ਬਹੁਤ ਅਛਾ ਲਗਿਆ .

  • इंतज़ार, सिडनी

    जी अच्छा लिखा है …पूरा पढ़े बिना रुका नहीं गया

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, इंतज़ार जी.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपके मित्रों का वर्णन रोचक है। पढ़कर अच्छा लगा। कई कपट या छद्म मित्र भी होते है जिनका उल्लेख आपने लेख के अंत में किया है। आगामी किश्त में शायद उनका जिक्र होगा। मेरा अपने जीवन का अनुभव है कि आज हम जो कुछ हैं उसमे अच्छे मित्रो का बहुत बड़ा योगदान है. उनके प्रोत्साहन व उनके सान्निध्य से बहुत लाभ हुआ, जीवन को दिशा मिली। मैं भी सन १९७८ से जुलाई २०१२ में सेवानिवृति तक csir का कर्मचारी रहा हूँ। आपके लेख व स्मृतियों को पढ़कर सुकून का अनुभव करता हूँ, उसके लिए आभारी हूँ।

    • विजय कुमार सिंघल

      टिप्पणी के लिए आभार, मनमोहन जी. लेकिन मैं उन मित्रों का उल्लेख नहीं कर रहा हूँ, जिन्होंने मुझे समय पर गच्चा दिया या धोखा दिया. मैं उनको प्रचारित नहीं करना चाहता. आवश्यक होने पर उनका बिना नाम लिए आलोचना अवश्य करूँगा.

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