मैं और मेरा
आमतौर पर लोग भौतिकता के जाल में फंस कर केवल अपने स्वार्थों के बारे में ही सोचते हैं। लोग चाहते हैं कि इतनी अधिक धन-सम्पत्ति अर्जत कर लें कि संसार में सुख प्राप्ति के सभी साधनों – वायु, जल, अन्न, धन व जमीन आदि पर सबसे पहले उनका स्वामित्व हो। इसके बाद भी यदि कुछ बचता है तो वह अपने परिवार वालों को ही मिले। इस प्रकार लोग लोभ, मोह और स्वार्थपरता से केवल ‘मैं और मेरा’ की भावना लिए हुए संसार की सर्वश्रेष्ठ वस्तुओं और सेवाओं को प्राप्त करना चाहते हैं। इसके लिए हम चाहे किसी भी व्यवसाय में लगे हुए हों, अधिक से अधिक धन संचय करने के लिए अनैतिक तरीके अपनाने में भी नहीं हिचकते हैं। संसार के पदार्थों के भोग में लीन हो कर हम यह याद नहीं रखते हैं कि एक दिन सभी को यह धन-सम्पत्ति छोड़ कर परलोक जाना पडे़गा।
हम लोग पुत्र-पौत्रों की आने वाली पीढि़यों के लिए धन संग्रह करना चाहते हैं। यह भूल जाते हैं कि पुत्र सुपुत्र तो क्यों धन संचय और पुत्र कुपुत्र तो क्यों धन संचय। हम चिन्ता क्यों करें। यजुर्वेद के एक मन्त्र का आशय है कि सब कुछ जो इस संसार में है उसके कण-कण में परमेश्वर बसा हुआ है। अन्न, धन आदि संसार की समस्त भोगने योग्य वस्तुएं परमेश्वर की ही देन हैं। इस धन का स्वामी भला कौन है? धन का स्वामी जीव नहीं है, इसलिए कोई भी धन का लालच न करे। धन शरीर धारण करने के लिए साधन मात्र है, यह साध्य नहीं है। परमेश्वर का आदेश है कि उसने जो अन्न, धन आदि वस्तुएं प्रदान की हैं, उनका उपभोग हम त्याग भाव से अनासक्तिपूर्वक करें।
गृहस्थ जीवनके लिए सामान्य आवश्यकतानुसार चल और अचल सम्पत्ति जोड़ना भौतिकतावाद नहीं है। केवल ‘मैं और मेरा’ में ही में उलझ कर रह जाना उचित नहीं है। इससे बचने का उपाय कठोपनिषद् के एक उपाख्यान में आचार्य यम ने नचिकेता को बताया था। वह है – अध्यात्मवाद। सामान्य गृहस्थ के लिए जीवन के कार्यों और दायित्वों को निभाते हुए आत्मचिन्तन और परमात्म-चिन्तन करना ही अध्यात्मवाद है।
कृष्ण कान्त वैदिक
मुझे लगता है कि मैं और मेरा का संतुलित रूप जो शास्त्र सम्मत भी हो धर्म है और अंसंतुलित तथा शास्त्र के विपरीत अधर्म है। हमारी शिक्षा व्यवस्था भी दोषपूर्ण है जहाँ बच्चो को मैं और मेरा का संतुलन बनाने का ज्ञान नहीं दिया जाता। लेख का विषय वा लेख पठनीय है। धन्यवाद। मनुष्य के सूक्ष्म शरीर में मन वा बुद्धि को शामिल किया गया है, चित्त वा अहंकार को छोड़ दिया गया है। आप अपने पूर्व लेख में वर्णित चित्त के बारे में कृपया इस पर भी विचार करें।
अच्छा लेख. अपना-पराया करना ही मोह-ममता में फंसना है. तुलसीदास जी ने भी लिखा है- ‘मैं तें तोर मोर यह माया’.