कहानी – सेतु
मनीष मिश्रा मणि
कहानी – सेतु
उम्र के उस मोड़ पर पहुँच गए थे बाऊजी की अब कुछ तमन्नाए बाकी नहीं रही.. जीवन में बिताये सुख दुःख के पलो का हिसाब लगाया तो ज़िन्दगी में जो मिला उन्हें खुशियां का पलड़ा ज्यादा भरी लगा..
घर में बेटे बहु के साथ एक पोता है और सब आज की ज़िन्दगी जीने के लिए मजबूर है.. बेटा बैंक में अधिकारी है तो जिम्मेदारी ज्यादा है और जिम्मेदारी निभाने की आदत तो बाऊजी ने ही डाली है सो व्यस्त ही रहता है.. बहु और पोता एक दूसरे के साथ खुश है .. पोते के लिए हर सुविधा का जिम्मा बहु का है .. कॉलेज में आ गया है सो उसकी पढाई से कोई समझौता नहीं..
पोते का सोचना है की वह होशीयार हो गया है .. कॉलेज में जो आ गया है .. ऐसा होता है सबके साथ .. उम्र सब हिसाब से सिखाती है .. अक्सर दादा और पोते में नोक झोक हो जाया करती है .. बस यह अच्छी बात है की दादा के संस्कार बेटे से होते हुए पोते को भी कुछ हद तक बांधे हुए है .. यह सोच का परिवर्तन है या अनुभव की कमी.. कौन फैसला करे..
पिछले कुछ दिनों से ऐसा ही कुछ चल रहा है.. आपस में बोलचाल कम ही है .. किसी बात को लेकर दोनों की राय अलग अलग है.. और दोनों अपने आप को सही समझते है.. इससे पहले दोनों को एक दूसरे से बात किये बिना चैन नहीं पड़ता था.. बाऊजी जो कहना या समझाना चाहते है उसे पोता समझने को कोशिश नहीं करता.. अपने नज़रिये से बाऊजी को समझने की कोशिश करता है .. बाऊजी भी कहाँ मानने वाले है .. रिश्ते की मर्यादा और उम्र का लिहाज़ तो रहना ही चाहिए .. बाऊजी को इतना तो समझ में आ गया की सही बात समझने के लिए कुछ अलग तरीका अपनाना ज़रूरी हो गया है .. और रास्ता बना ही लिया बाऊजी ने .. नुस्खा अनुभव का ..
उम्र के दिए अनुभव का आधार लेकर बाऊजी ने एक सेतु बनाने का निश्चय किया.. एक ऐसा सेतु जो मेरी बात पोते को समझने में मदद करे और उसकी बात मुझे समझ आ जाये.. थोड़ी देर सोचते ही उनके माथे की लकीरे अपनी जगह बदल कर होठो के मुस्कुराने की वजह से पड़ी लकीरो में बदल गयी..
पोता कॉलेज से लौट के आया तो बाऊजी ने दरवाजा खोला.. कुछ बात नहीं हुई लेकिन सब ठीक रहा.. पोते ने खाना खाया .. थोड़ी देर आराम भी कर लिया.. कुछ देर पढ़ने के बाद जब वह उठा तो बाऊजी उसके निकट आये .. फिर से बैठने को कहा तो पोते से उनका कहा टाला नहीं..
टेबल के एक तरफ बाऊजी दूसरी तरफ पोता और टेबल पे एक किताब.. बाऊजी ने बात शुरू की. . तुम जो पढ़ते हो वही सीखते हो वही कह सकते हो और सही भी है .. मैंने जो पढ़ा लिखा और उम्र भर का अनुभव हासिल किया उसके हिसाब से जो कहता हु वह भी सही कहता हु ..
मैंने जो तुमसे कहा उसपर तुम्हे जब यकीन होगा जब इस किताब में तुम्हे लिखा हुआ मिलेगा.. पोता भी बोला सही है बाऊजी.. अब बाऊजी ने वह किताब खोली और एक पेज का पैराग्राफ पढ़ने को कहा.. पोते ने पढ़ा और रुक गया.. बाऊजी ने फिर से पढ़ने को कहा .. पोते ने फिर से पढ़ा और रुक गया.. बाऊजी ने पोते से पूछा कुछ समझ आया.. पोता कुछ नहीं बोल पाया..
बाऊजी ने बड़े प्यार से उसके सिर पर हाथ फेरा और कहा मैंने जो तुम्हे पढ़ने को कहा था तुमने वह सिर्फ पढ़ा.. अगर तुम पढ़ते और सोचते तो तुम्हे बात समझ आ जाती.. एक बार फिर से पढ़ो और उसका अर्थ समझो.. पोते ने ऐसा ही किया .. पढ़ने के बाद सोचने लगा और एक एक शब्द का मतलब जोड़ते हुए जो अर्थ निकला हूबहू वही था जो बाऊजी कह रहे थे.. पोते के पास मुस्कुराने के अलावा कोई और विकल नहीं था..
एक मुश्किल हालात का इतना सरल हल .. फिर से बाऊजी ने पोते को समझाया की किताब से पढ़ना और सीखना जिस तरह एक नियम है उसी तरह उम्र भी बहुत कुछ सिखाती है.. और यही अनुभव होता है.. मैं जब तुम्हारी उम्र का था तब मेरी सोच तुम्हारे जैसी थी और जब तुम मेरी उम्र के हो जाओगे तो तुम मेरी तरह ही सोचने लगोगे.. बात पूरी होते होते दादा और पोता दोनों पहले जैसे ही हो गए ..
एक अच्छे सेतु का निर्माण हो चूका था वह भी चिरकाल तक के लिए ..
अच्छी कहानी. अगर समझदारी से काम लें तो पीढ़ियों में अंतराल बहुत कम हो जाये.