सामाजिक

वात्सल्य बन्धन

वात्सल्य का अर्थ है-बच्चों के प्रति स्नेह, लाड-प्यार, सुकुमारता। मनुष्य जीवन के प्रारम्भ होते ही रिश्तों के बन्धन बनने लगते हैं। सबसे पहला माता और पिता से जीवन का बीजरूप बनते ही सम्बन्ध बन जाता है। इसके बाद भाई, बहिन, दादा-दादी, नाना-नानी आदि से बन्धन जुड़ते हैं। इस संसार में जन्म लेने वाले बच्चों की मुस्कान को देखते ही माता-पिता और सभी बड़ों को अनायास ही अपनी ओर आकर्षित कर लेती है और उनका हृदय स्नेह की हिलोरों से भर उठता है। यह हमारे मनोभावों पर एक जादू, जैसा प्रभाव डालती है।

आज संयुक्त परिवार की व्यवस्था चरमरा रही है। युवाओं को आत्म निर्भर होने के बाद माता-पिता के बन्धन में रहना गंवारा नहीं है और न ही बुजुर्गों को नई पीढ़ी की स्वतन्त्र जीवन शैली रास आती है, एैसे में इन दोंनों पीढि़यों के बीच सामंजस्य बिठाने के लिए वात्सल्य बन्धन सेतु के रूप में काम करता है। बुजुर्ग अपनी सनतान से कितना ही रुष्ट हो जायें जब उनकी नजर अपने इन नन्हे-मुन्नों की मासूम मुस्कान पर पड़ती हैं और उनकी बातों को सुनते हैं तो उन पर एक जादू के जैसा प्रभाव पड़ता है। वात्सल्य के अलावा अन्य बन्धनों, जैसे भाई-बहिन, पति-पत्नी, मित्रों और रिश्तेदारों के बीच बने सारे बन्धन मोह या स्वार्थ की नींव पर आधारित होते हैं। इन बन्धनों में कोई दृढ़ता नहीं होती है।

सारे बन्धनों में केवल वात्सल्य बन्धन ही निस्वार्थ, निर्दोष और सार्वभौमिक है अर्थात् दुनिया में कहीं भी चले जायें सब स्थानों पर इसका एक ही स्नेह भरा रूप मिलेगा परन्तु हमारी संस्कृति की यह विशेष देन रही है कि शिशु के कोमल भावों को ध्यान में रखते हुए प्यार-दुलार से उसके जीवन को संवारा जाता है। किसी भी वस्तु की अति उचित नहीं कही जा सकती है, च्यार-दुलार भी एक सीमा तक ही करना उचित है क्योंकि एक उम्र के बाद थोड़ा ताड़न भी लालन-पालन के लिए नितान्त आवश्यक है परन्तु यह बनावटी होना चहिए। वात्सल्य बन्धनों में सबसे बड़ा बन्धन तो भक्त और भगवान् का है। परमेश्वर अपने भक्तों को बच्चों के समान समझते हुए, उनसे स्नेह रखता है, इसीलिए उसे भक्तवत्सल कहा गया है।

कृष्ण कान्त वैदिक

One thought on “वात्सल्य बन्धन

  • विजय कुमार सिंघल

    उत्कृष्ट लेख !

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