कविता

असमान रेखाएँ

एक रेखा खींची है हमने
अपने मनोमस्तिष्क में
नाप लिया है हमने इंच दर इंच
अपने पैमाने से
क्या नापा और कैसे नापा हमने
ये बताना मुश्किल है
अगम ही नहीं
अगोचर भी है वो रेखा
जो खिंच चुकी है हजारों वर्ष पहले
उसको मिटाने की जद्दो जहद
आज कल खूब चल रही है
बड़े बड़े लोग उनकी बड़ी बड़ी बातें
पर काम वही छोटे
सोच वही संकीर्णता के दल-दल में फँसी और धँसी हुई
रेखा जस की तस
और गहरी और विभत्स होती हुई
और लम्बाई लेते हुए
दीवार को गिराना आसान है
पर दिलों में पड़ी दरार को पाटना बहुत मुश्किल
जातियों वर्गों के बीच की काली रेखाएं
अब रेखाएं नहीं
अब तो सत्ता तक पहुचने का कुमार्ग बन चुकी हैं
हर पाँच साल बाद
फिर रँग दिया जाता है
इन रेखाओं को
अपने-अपने तरीके से
अपनी सहूलियत के रँग में
कभी दो गज इधर
कभी दो गज उधर
बनी रहती है रेखा जस की तस
अपनी जगह पर
हाँ कुछ वर्षौ से एक छटपटाहट देखी गयी है
रेखा के आर-पार
मिटाने की कवायद जारी है
वर्षौ से खिंची रेखा को मिटाने
लगेंगे वर्षौ
ये कोई गणित के अध्यापक की रेखागणित नहीं
जिसे जब चाहो
वर्ग बनालो
जब चाहो आयत बना लो
जब कब चाओ त्रिभुज बनालो
जब चाहो वृत बनालो
ये तो अदृश्य है
समाज के इस छोर से उस छोर तक
अविकसित से विकसित तक
हर जगह व्याप्ति है इसकी
ये रेखाएं
जल,जमीन,जंगल
सब जगह
इसको मिटाना ही होगा
हम सबको अपने दिलों से दिमाग से
समाज से
आओ सब मिल संकल्प लें
इस नये वर्ष में दूरियाँ कुछ कम करें

डॉ गिरीश चंद्र पाण्डेय ‘प्रतीक’

डॉ. गिरीश चन्द्र पाण्डेय 'प्रतीक'

पिथोरागढ़ उत्तराखंड

One thought on “असमान रेखाएँ

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत गहरा अर्थ लिये हुए एक रोचक कविता !

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