कविता

मां, तुम कितनी अच्छी हो ! -7

मां, वे मुझे बातों में फुसलाकर,

शादी के वादों में उलझाकर,

एक बार प्यार में,

और बाद में

ब्लेकमेल के व्यापार में,

लूटते रहेंगे मेरी रूह को,

मजबूरी में शादी कर डाली तो भी,

दहेज़ की आग की आंच से,

न तुम बच पाओगी और न मैं,

भगवान श्रीकृष्ण फिर हाथ मलते रह जाएंगे,

नैनं दहति पावकः,

के गीता – उद्घोष को गलत सिद्ध होता पाएंगे,

जब मेरे शरीर के पहले ही,

मेरी आत्मा जल जाएगी,

मां, गीताजी की गरिमा बनी रहने दो,

मुझे कोख में ही मरने दो,

मुझे इस असार संसार से तार दो,

मुझे जल्दी से मार दो,

मां, एक वादा करती हूं,

इस उपकार को मैं कभी भी नहीं भूला पाऊंगी,

प्रेत योनी में तो मुझे जाना ही पड़ेगा,

पर इस अकाल मौत के कारण,

ज्योतिषियों के चक्कर में मत पड़ना,

पितृदोष या कालसर्प योग से मुक्ति के लिए,

उज्जैन या नासिक जाने से बचना,

तुझे पितृदोष या कालसर्प योग,

कभी नहीं लगेगा,

मुझे मार कर तो तेरा भाग्य जगेगा,

मैं करती हूं, तुमसे वादा,

कम नहीं, बहुत ज्यादा,

मैं तुम्हारे,

पापा, नानी-दादी, बुआ – मौसी और डॉक्टर,

के उपकार को जरूर चुकाउंगी,

आसमान से धन और ऐश्वर्य की,

अपार कृपा बरसाऊंगी,

मां, तुम कितनी अच्छी हो,

मां, तुम बहुत अच्छी हो !

One thought on “मां, तुम कितनी अच्छी हो ! -7

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत मार्मिक कविता !

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