भव्य कल्पना
मेरे ह्रदय में हैं जो कदा
तुम वही रहती हो सदा
खुलती हैं जब मेरी पलकें
हर तरफ तुम ही
मुझे नजर आती हो सहसा
मेरी नींद में भी
दबे पांव आ जाया करती हो
जैसे ही आरम्भ
हुआ करता हैं सपना
मेरे विचारों की श्रृंखला
में
बिजली सी कौंधती हो
तब मुझे भी यही हैं लगता
मैं तुम्हारे ख्यालों के संग
हो गया हूँ कहीं लापता
तुम्हारे सुसज्जित जुड़े में
रेशम की डोर सा
कसकर बंधा रहता हूँ
तुमसे दूर कहाँ रहता हूँ
अब तू ही बता
उन्मत्त लहरों सी
मुझ तट के संयम के बाँध को
तोड़ देना चाहती हों
छाई हो आकाश में मानों
सावन की घटा
तुम्हारी ख़ामोशी के जंगल में
मैं जलप्रपात सा
निरंतर रहता हूँ गूंजता
मुझे तुम्हारी अन्तरंग ख्वाहिशों ने
लिया हैं गहराई से अपना
मेरी देह की नसों में
तुम्हारी स्मृति पिघल कर
लावे सी बहती हैं
जब भी मैं तुम्हें
याद करता हूँ यदाकदा
मेरे तसव्वुर में तुम
साक्षात प्रगट हो जाती हो
यह मेरा गुनाह हैं
तुम्हारी नहीं हैं कोई खता
मेरे इस इकतरफा प्रेम को
चाहों तो तुम
कर सकती हो मना
तुम्हारी प्रतीक्षा में
एक टूटे हुए तारे सा
इस अंतरिक्ष में फिर
रहूंगा मैं निरंतर भटकता
चांदनी सी ..तुम
आकाश से धरा पर
उतर आयी हो …
मैं हूँ जल
जिसकी सतह पर
उभर आयी हैं
तुम्हारी दिव्य सुन्दरता
यह प्रकृति तुम्हारी देह हैं
ईश्वर हैं जिसकी आत्मा
यही हैं मेरी भव्य कल्पना
जिसे मेरे
सूक्ष्म मन ने हैं रचा
मेरे ह्रदय में हैं जो कदा
तुम वही रहती हो सदा
किशोर कुमार खोरेन्द्र
किशोर जी …कल्पना भव्य है और शब्द भी सुन्दर …बधाई अच्छी रचना के लिये