उपन्यास : देवल देवी (कड़ी १३)
10. मिलन और बिछोह
कोई आधी रात के समय सेनापति अपने शयन कक्ष में आया। पत्नी चंद्रावलि उसकी प्रतीक्षा कर रही थी। चंद्रावलि देवगिरी के एक राजअधिकारी की पुत्री थी जो अपनी सखियों से इंद्रसेन की वीरता की कहानियाँ सुनकर उस पर मोहित हो गई। कुछ समय पूर्व जब राजा कर्ण देवगिरी के समारोह में आमंत्रण पर गए तो उनके साथ इंद्रसेन भी गए। वहीं इंद्रसेन और चंद्रावलि का समारोह में मिलन हुआ। चंद्रावलि अपनी इच्छा से इंद्रसेन के साथ आन्हिलवाड़ आ गई। बाद में राजा कण और देवगिरी के राजा की सहमति से इंद्रसेन और चंद्रावलि का धूमधाम से विवाह संपन्न हुआ।
आज की मिलन-रात्रि वियोग-रात्रि से भी बुरी थी। इंद्रसेन और चंद्रावलि दोनों की आँखों में नींद नहीं थी। इंद्रसेन कभी चंद्रावलि का मुख देखते, कभी युद्ध के स्वप्न देखते। इसी प्रकार श्रृंगार और वीर-रस में गोते लगाते, उनकी रात कटने लगी। चंद्रावलि उल्टी साँसे लेते यूँ लेटी थी, मानो उसके शरीर में प्राण ही नहीं हैं। इंद्रसेन उससे तनिक भी छेड़-छाड़ करता तो वह हाय-हाय करके रुदन करने लगती। सारी रात इंद्रसेन को समझाते, मनाते और ढाढ़स बँधाते बीती। इतने में कुक्कुट ने आवाज लगाई। जिस मिलन में वर्षों लिप्त रहकर तृप्ति नहीं होती, अब उस मिलन के लिए घड़ी-दो घड़ी की क्या राह तकना। सेनापति शय्या त्याग कर खड़े हुए।
सूर्योदय से पहले ही राजा, सेनापति, उप-सेनापति और सभी सैनिक युद्ध की वेशभूषा में तैयार हो गए। कूच के नक्कारे के साथ किले का मुख्य द्वार खुला और इंद्रसेन की अगुवाई में व्यूहबद्ध बघेल सेना तुमुलनाद करते हुए बाहर निकली।
रोचक कड़ी !
aabhar sir..