सेवा और परोपकार की मूर्ति आर्य पण्डित नरेन्द्र के जीवन की एक अनुस्मरणीय घटना
सेवा, परोपकार और दान ऐसे गुण हैं जिनसे मनुष्य जीवन फूलों की सुगन्ध का सा महकता है। जिस व्यक्ति के पास यह गुण नहीं है उसका जीवन किसी पुराने महल के खण्डहर के समान वीरान सा होता है। सेवा व परोपकार मनुष्य जीवन के उद्देश्य के अनुरूप होने से इनका धारक व पालक सुख, प्रसन्नता, सन्तोष आदि का अनुभव करता है। हम जब संसार पर दृष्टि डालते हैं तो ईश्वर, संसार के सभी जड़ पदार्थों व प्राणी जगत को पर-उपकार करते हुए पाते हैं। ईश्वर को किसी चीज की आवश्यकता नहीं। वह आप्त-काम है और स्वयं में पूर्ण आनन्द से सराबोर है, फिर भी वह जीवों के सुख के लिए इस विशाल सृष्टि को बनाकर धारण करता है और जीवात्माओं की मोक्ष आदि की उन्नति व प्राप्ति के लिए उन्हें सहयोग करता है। ईश्वर के बनाये हुए सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व पृथिवीस्थ सभी पदार्थ परोपकार कर रहे हैं। सूर्य हमें प्रकाश व ताप देता है व हमारी पृथिवी को अपने चारों ओर घूमाता है जिससे रात्रि व दिवस तथा ऋतु-परिवर्तन आदि कार्य होते हैं व खेतों में अन्न उगता व पकता है। चन्द्रमा प्रकाश देने के साथ समुद्र में ज्वार भाटा लाता है और ओषधियों में रस भरता है। चन्द्रमा का हमारे मन से भी सम्बन्ध है। हमारा मन चन्द्रमा के गुणों से प्रभावित होता है। इसी प्रकार से अग्नि, वायु, जल आदि से हम नित्य प्रति लाभान्वित हो रहे हैं। यदि हमें कुछ पल वायु न मिले तो हमारा प्राणान्त हो जाता है। वायु का ऋण हम कभी अनुभव ही नहीं करते। इसका ऋण चुकाना वायु को प्रदुषित होने से बचाना वा इसको सर्वथा शुद्ध रखना है। हमारे ऋषियों ने इसके लिए प्रातः सायं वेला में अग्निहोत्र-यज्ञ का विधान किया है परन्तु आधुनिक सभ्यता में अंहकारवश हम यज्ञ के महत्व की जाने-अनजाने उपेक्षा करते हैं। इसी प्रकार से जब पशु आदि प्राणियों पर भी दृष्टि डालते हैं तो हम इन सबको परोपकार करता हुआ पाते हैं। गाय के ऋण से तो हमें लगता है कि कोई भी मानव उऋण नहीं हो सकता। गाय हमारी अपनी माता के समान है। गाय का सम्मान करना, उसको भोजन करना, उसकी सेवा करना हमारा धर्म है। जो ऐसा नहीं करते वह कृतघ्न ही कहे जा सकते। गोहत्यारे व गोमांस भक्षक को हम क्या कहें, वेद के अनुसार शायद ऐसे लोगों को मानवता का शत्रु ही कहा जायेगा। इसी प्रकार से अन्य पशु भी परोपकार में मनुष्यों से काफी आगे हैं। क्या हमें इन सबसे सेवा व परोपकार की शिक्षा नहीं लेनी चाहिये और इनके ऋण से उऋण होने का प्रयास नहीं करना चाहिये?
सेवा व परोपकार की एक प्रेरणादायक सत्य घटना हम यहां प्रस्तुत कर रहे हैं। महाराष्ट्र के माड़च गांव के श्री पं. कर्मवीर जी ने एक बार आर्य विद्वान पं. राजेन्द्र जिज्ञासु को हैदराबाद में लौह पुरूष के नाम से विख्यात पं. नरेन्द्र जी के जीवन की सेवा व परोपकार से सम्बन्धित यह घटना सुनाई। जिज्ञासु जी का कहना है कि महापुरूषों के जीवन के ऐसे प्रेरक प्रसंगों को संग्रहीत करके घर घर में बच्चों को ऐसी सच्ची कहानियां सुनानी चाहिये। इससे परिवार के सभी सदस्यों पर अच्छे संस्कार पड़ते हैं। सेवा व परोपकार की यह घटना इस प्रकार है कि श्री कर्मवीर जी के परिवार में एकबार उनके काका बहुत रूग्ण हो गये। रोगी को उपचार के लिए हैदराबाद ले जाना पड़ा। वहां श्री कर्मवीर व उनके परिवार के लोगों की किसी से जान पहचान नहीं थी। परिवार की आर्थिक स्थिति भी अच्छी नहीं थी। अतः यह मुख्य प्रश्न था कि रोगी को व सेवा के लिए साथ गये परिवार के सदस्यों को कहां रखा जाये। साथ में गये लोग जानते थे कि हैदराबाद में आर्य समाज की कई इकाईयां हैं। कर्मवीर जी तो आर्य समाजी थे परन्तु परिवार के अन्य सदस्यों में से कोई आर्य समाजी नहीं था।
परिवार के सदस्यों ने कर्मवीर जी को कहीं ठहरने की व्यवस्था करने को कहा। कर्मवीर जी स्वयं परिवार के लोगों को साथ लेकर हैदराबाद में आर्य समाज के अब तक के सबसे अधिक प्रसिद्ध विद्वान, त्यागी, तपस्वी, आन्दोलनकारी व विख्यात नेता क्रान्तिवीर श्री पं. नरेन्द्र जी के पास गये और अपनी समस्या उनके सम्मुख रखी। पण्डित जी ने कहा, “रोगी को यहीं मेरे कमरे में ले आयें।“ अपनी कुटी तत्काल उनके लिए खाली कर दी। उनका अपना सामान जो भी कमरे में था, उसे निकालकर वहीं बरामदे में डेरा डाल दिया। परिवार के लोग आर्य समाज के उस निर्माता के इस व्यवहार से अत्यन्त प्रभावित हुए। हैदराबाद के गांव-गांव में पं. नरेन्द्र जी की वीरता और निडरता को सभी जानते थे। माड़च के लोग भी पण्डित जी की शूरता व संघर्ष के कारण उनको सम्मान की दृष्टि से देखते थे परन्तु इन लोगों ने उनके सेवा भाव व परोपकारी जीवन का ऐसा अनुपम रूप तो पहली बार देखा। इन लोगो ने पण्डित जी की गुंजोटी, उमरगा, लातूर, निलंगा व औसा में नर-नाहर श्री नरेन्द्र जी की ललकार हुंकार तो सुन रखी थी परन्तु इतने निकट से उनके ऐसे मृदुल व्यवहार व परोपकारी एवं पर-दुःखरकातरता वाले व्यवहार का दिव्य दर्शन करने का उन्हें यह पहला अवसर था। जिज्ञासु जी न इस उल्लेख करने के बाद कहा है कि “अब रोगी और उनके परिवार के लोगों के रोम रोम में पं. नरेन्द्र जी व आर्यसमाज के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो गई। पण्डित जी को दो तीन दिन के लिए तो बरामदे में रहना नहीं पड़ा था। रोगी की चिकित्सा के लिए परिवार को वहां देर तक रूकना पड़ा। कर्म बल से ही वाणी का प्रभाव होता है।“
पण्डित नरेन्द्र जी ने ‘जीवन की धूप–छांव’ नाम से अपनी संक्षिप्त आत्म कथा लिखी है। महापुरूष अपनी जिह्वा से अपने गुणों का बखान नहीं करते। ऐसा ही उन्होंने अपनी इस आत्मकथा में भी किया है। उस पुस्तक में उन्होंने जीवन में घटी घटनाओं का परिचय मात्र ही कराया है। हम इस पुस्तक से उनके सेवा व परोपकार से जुडी जम्मू-कश्मीर राज्य की एक घटना प्रस्तुत कर रहे हैं। पण्डित नरेन्द्र जी लिखते हैं कि सन् 1932 के मध्य में जम्मू कश्मीर में शेख अब्दुल्ला अध्यक्ष मुस्लिम कान्फ्रेंस के नेतृत्व ने हिन्दू-मुसलमान षड्यन्त्र रचा गया था। जम्मू-कश्मीर का सारा क्षेत्र मुसलमानों की धर्मान्धता और गुण्डागर्दी की दुर्घटनाओं से प्रभावित हो चुका था। प्रतिदिन समाचार पत्रों में दर्दनाक और जंगलीपन की खबरें प्रकाशित हो रही थीं कि हिन्दुओं को बहुत बुरी तरह से मौत के घाट उतारा जा रहा है। मकान चलाये जा रहे हैं। स्त्रियों का सतीत्व नष्ट किया जा रहा है। इन दुर्घटनाओं से पीडि़त होने वाले हिन्दुओं की सेवा और सहायता करने का आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब और लाहौर ने निश्चय किया। तदनुसार उपदेशक विद्यालय के विद्यार्थियों को लेकर वीरता की शान स्वामी स्वतन्त्रानन्द जी जम्मू पहुंचे और स्थान-स्थान पर केन्द्र बनाकर सहायता का कार्य बड़े स्तर पर आरम्भ कर दिया। जम्मू-कश्मीर, राजौरी, अखनूर, लद्दाख, पुंछ इत्यादि स्थानों पर हजारों हिन्दुओं को मुसलमानों ने मौत के घाट उतार दिया था और लद्दाख में बुद्धमत के लोगों को मुसलमान बनाने की योजना तेज कर दी गई थी। कश्मीर की पूरी घाटी में दंगा-फसाद की आग भड़क उठी थी। कश्मीर जिसे स्वर्ग कहा गया और जो आनन्द का स्थान समझा जाता है, उसे मानवता के शत्रुओं ने नरक में परिवर्तित कर दिया था। सैकड़ों बरसों का आपसी प्रेम जुदा हो चुका था।
कश्मीर के महाराज हरिसिंह को रियासत से बेदखल करके स्वयं को बेताज का बादशाह बनाने की शेख अब्दुल्ला तैयारी कर रहे थे। आज से कुछ समय पूर्व तक भी कश्मीर शेख अब्दुल्ला की राजनैतिक कूटनीतियों का शिकार होता रहा है। आर्यसमाजियों ने शेर-ए-कश्मीर के सारे षड्यन्त्रों को बड़ी दिलेरी और साहस से सामना करके असफल बना दिया था। पूरे जम्मू-कश्मीर में स्वामीजी ने पन्द्रह केन्द्र स्थापित किये और हर केन्द्र पर पांच-पांच विद्ययार्थियों और एक-एक अध्यापक निगरानी के लिए नियुक्त किया। इस निर्णय के प्रकाश में मुझे (पं. नरेन्द्र जी को) राजौरी का वह क्षेत्र दिया गया, जहां हिन्दुओं की हत्या सार्वजनिक रूप से की गई थी। राजोरी वह पवित्र स्थान है, जहां हिन्दू धर्म के रक्षक, पराक्रम के देवता, वीर बन्दा बैरागी का जन्म हुआ था।
राजोरी के सहायता-कैम्प के इंचार्ज के रूप में तीन मास तक वहां रहते हुए (पं. नरेन्द्र जी वहां) सेवा कार्य करता रहा। हमारे निरीक्षक थे पण्डित नरदेव जी सिद्धान्त शिरोमण मुंशी फ़ाजिल। तीन मास के पश्चात् हम पांचों विद्यार्थी और पण्डित जी जम्मू पहुंचे तो वहां पूज्य स्वामी जी महाराज लाहौर से पहुंच चुके थे। आर्य प्रतिनिधि सभा पंजाब और प्रादेशिक आर्य प्रतिनिधि सभा के विद्यार्थी कड़ाके की सर्दी में जान हथेली पर रखकर दिन-रात सेवा में लगे रहे। जम्मू के प्रसिद्ध हिन्दू महा-सभाई नेता श्री प्रेमनाथजी डोगरा ने हम सबको विदाई दी और पूज्य स्वामीजी और महात्मा हंसराज जी को सेवाकार्य के लिए धन्यवाद किया। हम लोग जम्मू से वापस होकर लाहौर पहुंचे।
पण्डित नरेन्द्र जी के जीवन पर आर्य जगत के प्रख्यात विद्वान डा. कुशल देव शास्त्री ने लिखा है कि “नवयुवक हृदय सम्राट श्री नरेन्द्रजी केवल हैदराबाद रियासत की सीमा में ही आबद्ध होनेवाले नहीं थे, अपितु ‘दक्षिण केसरी’और ‘हैदराबाद केसरी’ की विरूदावली से सम्बोधित किये जाने वाले पं. नरेन्द्रजी वस्तुतः अखिल भारतीय स्तर के स्वाधीनता सेनानी एवं राष्ट्रीय नेता थे। सन् 1932 में आपने छात्रावस्था में राष्ट्रीय एकता को सुदृढ़ करने की भावना से लाहौर के चौराहे पर सत्याग्रह किया था और पांच दिन तक पुलिस की हवालात में बन्द रहे थे। सन् 1942 में आपको ओजस्वी वाणी और तेजस्वी लेखनी से प्रभावित होकर सैकड़ों सत्याग्रहियों ने ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में भाग लिया था। भारतीय स्वाधीनता संग्राम और भारतीय एकीकरण के इतिहास की गाथा तो आपके व्यक्ति और कृतित्व की चर्चा के बिना अधूरी है। देशोन्नति के साथ–साथ दलितोद्धार और समाजोन्नति के लिए आप तिल–तिल जले और जिये। आपका विश्वस था कि हिन्दी आसेतु हिमाचल भारतवर्ष की सम्पर्क भाषा, प्राच्य भारतीय संस्कृति की संवाहिका तथा राष्ट्रीय एकता की कडि़यों को सुदृढ़ करने वाली राष्ट्रभाषा है, इसलिए आप पंजाब–हिन्दी रक्षा आन्दोलन और हिन्दी प्रचार सभा हैदराबाद के साथ समर्पण भाव से जुड़े रहे।’ गो आदि उपकारी पशुओं के नाश से राजा और प्रचजा का नाश हो जाता है’, अतः मूक पशुओं की व्यथा से अभिभूत होकर भारतीय आर्थिक ढांचे को सुदृढ़ करने की भावना से आप आजीवन गोरक्षा आन्दोलन और अभियान से भी संलग्न रहे। ब्रह्मचर्याश्रम से सीधे सन्यासाश्रम की उदात्त सांस्कृतिक परम्परा का प्रमाणिकता से निर्वहन कर आपने अपनी जीवन–समिधा को सतत पददलितों की व्यथा दूर करते हुए राष्ट्र और संस्कृति के यज्ञ में सर्वात्मना समर्पित कर दिया।“ इन पंक्तियों में पं. नरेन्द्र जी के व्यक्तित्व की एक झलक दिखाई गई है।
सेवा व परोपकार मानव धर्म के अनिवार्य अंग हैं। यह कार्य पवित्र मन, मस्तिष्क व सेवा-परोपकार के गुणों को धारण करने वाली आत्मा का स्वामी व्यक्ति ही किया करता है। आज पण्डित जी इस संसार में नहीं है। 24 सितम्बर, 1876 को हैदराबाद में उनका निधन हो चुका है परन्तु यह घटना पढ़कर मन उनके से सेवा भावी कार्य के प्रति द्रवित होकर व श्रद्धा से झुक जाता है। आंखें भी सजल हो जाती हैं। ‘कीर्ति यस्य सः जीवति।‘ जिस मनुष्य ने यशस्वी कार्य किए हों उसकी कीर्ति अक्षुण्य होती है। ऐसा व्यक्ति शरीर के अवसान होने पर भी मरता नहीं अपितु अपने सद्कर्मों से अमर हो जाता हे। आईये, पं. नरेन्द्र जी के जीवन का अध्ययन कर उनके प्ररेणाप्रद कार्यों को अपने जीवन का अंग बनाने का प्रयास करें।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख जी , बहुत बातें जान्ने को मिलीं .
आपका बहुत बहुत धन्यवाद। क्या मैं आपका पूरा नाम जान सकता हूँ? कहीं आप श्री गुरमेल सिंह भमरा जी तो नहीं हैं ? आशा है कि भविष्य में भी आपकी कृपा बनी रहेगी।
जी हाँ. वही हैं. इसमें अधुरा नाम लिखा है.
हार्दिक धन्यवाद।
ऐसे देशभक्तों के जीवन परिचय जानकर बहुत प्रेरणा मिलती है. पंडित जी को प्रणाम और आपको साधुवाद !
आदरणीय श्री विजय जी, आपको हार्दिक धन्यवाद। आपके प्रेरणादायक शब्दों के लिए मैं आपका कृतज्ञ हूँ।
बहुत अच्छा लेख .
आपको मेरा हार्दिक धन्यवाद एवं प्रणाम।