नैतिक शिक्षा
नीति का अर्थ है मनुष्य के जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने के साधनरूप नियम, जिन पर चल कर इस जीवन और परलोक (पुनर्जन्म) में कल्याण की प्राप्ति हो। आचार शिक्षा का सम्बन्ध व्यक्तिगत जीवन से है, जिसमें आत्मोन्नति पर बल दिया गया है। नैतिक शिक्षा में व्यक्ति के आचार-विचार की शुद्धि के साथ ही पारिवारिक, सामाजिक, राष्ट्रीय, वैश्विक और प्राणि मात्र से सम्बन्धित विषयों पर विचार किया जाता है। मनुष्य अपने-पराये, सजातीय-विंजातीय, शत्रु-मित्र, परिचित-अपरिचित, आदि से किस प्रकार का व्यवहार करे यह नैतिक शिक्षा बताती है। इसके द्वारा समाज के प्रत्येक व्यक्ति का वास्तविक कल्याण होता है। चाणक्य के अनुसार सुख का मूल धर्म है, धर्म का मूल अर्थ है, अर्थ का मूल राज्य है, राज्य का मूल इन्द्रिय जय है। इन्द्रिय जय या संयम के बिना कोई राज्य सुरक्षित नहीं रह सकता है। नैतिक शिक्षा का मूल वेदों में मिलता है। वेदों में विधि और निषेध अर्थात् मनुष्यों के कर्तव्य और अकर्तव्य कर्म वर्णित हैं। वेदों के साथ ही ब्राह्मण ग्रन्थ, उपनिषद्, गीता, महाभारत, रामायण, पंचतन्त्र, विदुर, शुक्र, भर्तृहरि, आदि ऋषियों के नीति ग्रन्थों में इनका विस्तृत वर्णन है।
यदि अपने नैतिक मूल्यों को सुरक्षित रखना है तो हमें उपरोक्त शास्त्रों से प्रेरणा लेनी होगी। सबसे पहले स्वयं को सुधारते हुए सत्य, प्रेम, दया, अहिंसा, निरव्यसन, जितेन्द्रियता, अक्रोध, अलोभ, परोपकारिता आदि सद् गुणों को अपनाना होगा। माता-पिता ओैर आचार्य बालक/बालिकाओं के आदि गुरु होते हैं, वे इन आदर्शों को संस्कारं रूप में बच्चें में स्थापित करें। बचपन में उनमें ईश्वर भक्ति और समर्पण की भावना आए जिससे युवा पीढ़ी में मनसा-वाचा-कर्मणा सत्प्रवृत्तियां का विकास हो सकेगा। यह उनके चरित्र निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाएगा और उनमें सत्य, दया, त्याग तप, विनय, न्याय प्रियता और राष्ट्र प्रेम आदि के गुण विकसित होंगे। प्राचीन परम्परागत नैतिक मूल्यों को पुनःस्र्थापित करके ही हम एक आदर्श और समृद्ध समाज का निर्माण कर सकते हैं।
कृष्ण कान्त वैदिक
लेख बहुत अच्छा लगा. अगर हम सब moral values को समझ कर सही रास्ते पर चलें तो समाज सही माने में रहने योग्य वातावरण पैदा कर सकेगा जिस से देश स्वर्ग जैसा लगेगा.
बहुत अच्छा लेख! हमें औपचारिक शिक्षा से अधिक नैतिक शिक्षा की आवश्यकता है।