धैर्य का गुण
धीरता, सहिष्णुता, स्थिरता का भाव और सहनशीलता धृति या धैर्य है। विषम परिस्थितियां उत्पन्न हो जाने पर भी मन में चिन्ता, शोक और उदासी उत्पन्न न होने देने का गुण घैर्य है। धैर्य मनुष्य को ऊंचा उठाने का एक उत्त्म गुण है। धैर्यवान व्यक्ति विपत्ति आने पर भी अपना मानसिक सन्तुलन बनाए रखता है और शान्तचित्त से इस पर नियंत्रण करते हुए बचने का सरल मार्ग खोज लेता है। सुख दुःख, जय पराजय, हानि लाभ, गर्मी सर्दी आदि अनेक ऐसे द्वन्द्व हैं जो जीवन में अनुकूलता या प्रतिकूलता का अनुभव कराते रहते हैं। द्वन्द्वों पर विजय पाने के लिए किया गया पुरुषार्थ एक प्रकार का तप है।इन द्वन्द्वों पर विजय पाने के बाद व्यक्ति धीर पुरुष बन जाता है। इस गुण के कारण वह सुख के समय प्रसन्नता से गदगद नहीं होता और न दुःख में हताश होकर बैठता है बल्कि हर एक अवस्था में समान रूप से कार्यशील बना रहता है। धैर्य के गुण को प्राप्त करके मनुष्य में असाधारण सामथ्र्य आ जाती है। वह न केवल अपने लक्ष्यों को अविचल रूप से प्राप्त करता जाता है, बल्कि दूसरों को उचित सलाह देने के लिए भी सदा तत्पर रहता है।
गीता में मनुष्य के इस गुण को दैवीय सम्पदा बताया गया है। इस गुण के अभाव में मनुष्य धार्मिक कार्य में लज्जा करेगा और अधार्मिक कामों या कुकर्मों को करने में नहीं डरेगा। ऐसे में समाज में आसुरी वृत्ति बढ़ती जायेगी। समाज में मानवीय मूल्यों की रक्षा के लिए हमें धैर्यशाली बनना चाहिए। मनुष्य को जीवन मार्ग पर चलते हुए अनेक कष्टों का समना करना पड़ता हैं, अनेक संघर्ष करने पड़ते हैं परन्तु इनका सामना धीरज रख कर ही किया जा सकता है। सामान्य परिस्थितियों में तो जीवन यथावत चलता रहता है परन्तु घैर्य की परीक्षा विपत्ति आने पर ही होती है, इसीलिए संत तुलसीदास ने उचित ही कहा है, ‘‘धीरज, धर्म, मित्र अरु नारी, आपतकाल परखिए चारी।” भर्तृहरि का कहना है कि चाहे नीति निपुण व्यक्ति हमारी निन्दा करें और चाहे स्तुति करें, लक्ष्मी अर्थात धन सम्पत्ति चाहे रहे न रहे, आज ही मरना हो चाहे एक युग के पश्चात मरना हो, घीर पुरुष न्याय के रास्ते से विचलित नहीं होते हैं।
कृष्ण कान्त वैदिक
धैर्य का जीता जागता उदहारण भगवान श्री रामचन्द्र जी के जीवन का है। एक दिन पहले उन्हें कहा गया कि कल तुम्हारा राज्यभिषेक होगा और दूसरे दिन उन्हें बताया गया कि तुम्हे राजधानी छोड़कर आज ही १४ वर्षों के लिए वन को जाना होगा और वहां राजकुमारों की तरह से नहीं अपितु तपस्वियों की भांति रहना होगा। सिद्ध योगी बाल्मीकि जी ने लिखा है कि श्री रामचन्द्र जी के मन के भाव राज्य मिलने की सूचना को सुनकर और वन जाने की आज्ञा को सुनकर एक समान थे। दोनों परस्पर भिन्न स्थितियों में भी उनके मन की अवस्था एक सामन थी। यह धैर्य की पराकाष्ठा थी। महर्षि दयानंद सरस्वती जी की मृत्यु का उदहारण भी धैर्य की पराकाष्ठा है। लेखक महोदय से निवेदन है कि यदि वह अपने लेख पर किसी पाठक की प्रतिक्रिया देखें तो उस पर अपनी सहमति वा असहमति व्यक्त करने की कृपा किया करें। लेख पठनीय है।
उत्तम लेख.
तुलसी दास जी ने धर्म रथ की चर्चा करते हुए भगवान श्री राम के मुख से कहलवाया है कि “सौरज धीरज तेइ रथ चाका” अर्थात्शौ र्य और धैर्य उस धर्म रथ के दो पहिये हैं. इसका सीधा अर्थ यह है कि धैर्य भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना शौर्य. इसलिए धर्म के जो दस लक्षण बताये गए हैं उनमें धृति अर्थात् धैर्य का स्थान पहला रखा गया है.