मनुष्यों के जन्म का कारण एवं जीवन का उद्देश्य
मनुष्य का जन्म क्यों होता है? हर प्रश्न के उत्तर की तरह इसका भी कोई उत्तर तो अवश्य होगा ही। इस प्रश्न के उत्तर पर विचार करने पर जन्म का साक्षात् कारण तो माता–पिता का होना प्रत्यक्ष दिखाई देता है। माता–पिता में कुछ प्राकृतिक वासनायें वा इच्छायें होती हैं जो सन्तान के रूप में परिणत होती है। महाभारत में श्री कृष्ण व उनकी एकमात्र धर्मपत्नी माता रूक्मणी में संवाद आता है कि श्री कृष्ण ने उनसे पूछा कि विवाह क्यों किया जाता है? इसका उत्तर उन्होंने दिया कि सन्तान की प्राप्ति की कामना या इच्छा से विवाह किया जाता है। स्वाभाविक है कि विवाह न हो तो सन्तान नहीं होगी और यदि सभी मनुष्य विवाह न करने का निश्चय कर लें तो आगामी 50 से लेकर 125 वर्षों में यह सारा संसार मनुष्यों से विहीन हो जायेगा। सन्तान माता–पिता से उत्पन्न तो अवश्य होती है परन्तु माता के गर्भ में सन्तान का निर्माण माता–पिता नहीं करते, वह कुछ प्राकृतिक नियमों के अनुसार होता है। यह सिद्ध नियम है कि कोई भी रचना या निर्माण किसी रचयिता या निर्माता के द्वारा ही होता है। रचनाकार व निर्माता हमेशा एक चेतन तत्व होता है। मनुष्य का आत्मा भी एक चेतन तत्व है। यदि वह है तो मनुष्य है और यदि शरीर में आत्मा न हो अर्थात् शरीर से निकल जाये तो शरीर का कुछ मूल्य नहीं होता। चेतन जीवात्मा ही शरीर को साधन के रूप में प्रयोग वा उपयोग करके नाना प्रकार के कर्म व क्रियायें कर रचना व निर्माण के कार्य करता है। कुछ रचनायें मनुष्य कर सकता है और कुछ नहीं। मनुष्य मिट्टी व पत्थर तथा आज उपलब्ध भवन सामग्री का उपयोग करके स्वयं वा अन्यों के सहयोग से अपने लिए इच्छित आवास बना सकता है। यह पौरूषेय रचना है। मनुष्यों के लिए जो कार्य करने सम्भव हैं वह सभी पौरूषेय रचनायें कही जाती हैं। वैज्ञानिकों ने कम्प्यूटर, मोबाईल, हवाई जहाज, रेल आदि उपयोगी यन्त्रों आदि का निर्माण किया है, अतः यह सभी पौरूषेय रचनायें हैं। हम सूर्य, चन्द्र, पृथिवी व आकाश में तारागण समूह को देखते हैं। कोई मनुष्य या देश इनको बनाने का दावा नहीं करता और न ही भविष्य के लिए कोई योजना है। यह रचनायें अपौरूषेय रचनायें है जिन्हें एक सर्वव्यापक, निराकार, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान व चेतन सत्ता ही करती है। यह बात अलग है कि अतिसूक्ष्म, सर्वव्यापक व निराकार होने के कारण वह हमें आंखों से दिखाई न देती हो। वही चेतन तत्व, ईश्वर, परमात्मा, जगदीश्वर, स्रष्टा वा सृष्टिकत्र्ता आदि अनेक नामों से जाना जाता है। उसी ईश्वर ने माता–पिता में सन्तान उत्पन्न करने की भावना या वासना उत्पन्न की हुई है। इसी से यह सन्तान को जन्म देते हैं परन्तु सन्तान के शरीर व उसके सभी अवयवों को बनाता परमात्मा ही है।
अब यह देखना है कि परमात्मा को यह संसार बनाने व मनुष्य आदि प्राणियों को जन्म देने की आवश्यकता क्यों पड़ी? इसका उत्तर है कि परमात्मा का स्वयं तो अस्तित्व है ही, इसके साथ ही एक इतर चेतन तत्व जीवात्मा जिनकी संख्या मनुष्य के ज्ञान में अनन्त हैं, का भी अस्तित्व ब्रह्माण्ड में है। इन दो तत्वों के अतिरिक्त एक जड़ तत्व प्रकृति भी सदा से ब्रह्माण्ड में विद्यमान है। यह तीनों अनादि तत्व परस्पर इस अनन्त परिमाण वाले ब्रह्माण्ड में विद्यमान है। ईश्वर अनुत्पन्न, अनादि, अजन्मा, नित्य, अवनिाशी, अमर, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान चेतन सत्ता है। जीवात्मा चेतन तत्व, अणु मात्र, अत्यन्त सूक्ष्म, अजन्मा, अनुत्पन्न, अविनाशी, अमर, नित्य, कर्मो का कर्ता व फलों का भोग करने वाली सत्ता है। यह सर्वज्ञ न होकर अल्पज्ञ, ससीम, एकदेशी है और कर्म करने में स्वतन्त्र तथा फल भोगने में ईश्वर के वश में है अथवा परतन्त्र है। चेतन तत्व में ज्ञान ग्रहण करने के साथ कर्म व क्रिया करने का गुण भी होता है। प्रकृति जड़ तत्व है जिससे जड़ पदार्थ यथा सूर्य, चन्द्र, पृथिवी, तारा समूह सहित अग्नि, जल, वायु, आकाश का सृजन हो सकता है। जीवात्मा अपनी चिन्मय अवस्था में कोई कार्य नहीं कर सकता। प्रकृति भी जड़ होने से ईश्वर के आश्रित है। ईश्वर का स्वरूप ऐसा है कि वह अनादि काल से सृष्टि की रचना करता आया है। उसने इस सृष्टि से पूर्व असंख्य या अनन्त बार इसी प्रकार की सृष्टि की रचना कर उसका सफलता पूर्वक संचालन किया है। अपने उसी स्वभाव व अन्य गुणों व सामर्थ्य के कारण उसने इस कल्प में भी इस सृष्टि को रचा है तथा उसका पालन व संचालन कर रहा है। जीवात्मा अकेले व सब मिलकर भी स्वयं सृष्टि की रचना व संचालन नहीं कर सकते और न स्वयं इच्छानुसार जन्म ले सकते हैं। ईश्वर के सामने जीवात्मायें एवं प्रकृति है। जीवात्माओं को पूर्व जन्मों में किये गये संचित व अभुक्त कर्मों के अनुसार फल देना है। अतः उसे सभी जीवों को उनके प्रारब्ध, अभुक्त वा संचित कर्मों के अनुसार सुख व दुःख के उपभोग के लिए उन्हें जन्म देना होता है। जीवों का यही प्रारब्ध ही सभी मनुष्यों व अन्य प्राणियों के जन्म का कारण हुआ करता है। अतः ईश्वर मनुष्य व प्राणियों के वृद्ध होने एवं पूर्व प्रारब्ध का कुछ व अधिकांश भाग भोग लेने पर नियमों के अनुसार प्रत्येक योनि में रहने वाले जीवात्माओं को मृत्यु प्रदान करता है। मृत्यु के पश्चात पुनः उनके प्रारब्ध के अनुसार उन्हें अनेकानेक जीव–योनियों में से उनकी पात्रता के अनुसार निष्पक्ष व न्यायकारी राजा के रूप में सुख व दुःखों का उपभोग करने के लिए किसी एक योनि में जन्म देता है। इस प्रकार हमें मनुष्य का जन्म क्यों होता है? इसका उत्तर मिल गया है। यही सत्य है और यही इस प्रश्न का सन्तोषजनक उत्तर है। नान्यः पन्था विद्यते अयनाय।
अब मनुष्य जीवन के उद्देश्य पर विचार करते हैं। पहला उद्देश्य तो प्रारब्ध का भोग है। इसके अतिरिक्त मनुष्य योनि, कर्म व फल भोग योनि, उभय योनि है जो हमारे लिए प्रत्यक्ष है। हमारे पास धन है। एक जरूरतमन्द व्यक्ति हमारे सामने धन की याचना करता है। हमें भी इच्छा होती है कि उसकी सहायता करनी चाहिये। हमारे मन में अनेक प्रकार के विचार आते हैं। लोभ की प्रवृत्ति हमें उसकी सहायता करने से रोकती है। परमार्थ के बारे में सोचते हैं तो दान का फल सुख–शान्ति व जीवन की उन्नति होता है। अब हम सोच विचार कर निर्णय करते हैं। कुछ व्यक्ति जिनकी संख्या आजकल कम है, परमार्थ को महत्व देते हैं और अधिकांश लोभ के वशीभूत होकर उस व्यक्ति को सहायता करने में असमर्थता व्यक्त करते हैं। इस प्रकार से हम शुभ व अशुभ कर्म करते हैं। इन कर्मों का फल ईश्वर से मिलता है। यदि हम निःस्वार्थ भाव से परमार्थ के काम करते हैं तो हमारे पुण्य एकत्रित होते रहते है। जीवन में आने वाले कष्टों को अपने पूर्व कर्मों का भोग मानकर यदि हम प्रसन्नता पूर्वक सहते हैं तो इससे हमारे पूर्व के अशुभ कर्मों का भोग हो जाता है। इस प्रकार से हमारे पुण्य कर्मों का खाता बढ़ता है और अशुभ या पाप कर्मों का खाता घटता है। इससे हमारा प्रारब्ध बनता है और इस जन्म व परजन्म में उन्नति अर्थात् उच्च योनि में जन्म का प्राप्त होना निश्चित होता है।
मनुष्य योनि में हमारे सामने एक विकल्प और भी है। वह है कि हम सृष्टि व सृष्टिकर्ता को जानकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना व उपासना मे भी पर्याप्त समय व्यतीत करें। साथ ही साथ ईश्वर ज्ञान वेद और वैदिक साहित्य का स्वाध्याय व अध्ययन करें। ईश्वर की उपासना वा ध्यान का कार्य यदि ज्ञान, बुद्धि व वेदसम्मत हो तो इससे भी हमारा प्रारब्ध बनता है। इससे ईश्वर से मित्रता व निकटता हो जाती है। जीवात्मा के गुण, कर्म व स्वभाव का सुधार होता है। निरन्तर स्तुति, प्रार्थना, उपासना, यज्ञ–अग्निहोत्र का अनुष्ठान व अन्य सभी वैदिक कर्तव्यों व कर्मों को करके हम आत्मा की उन्नति को प्राप्त होते जाते हैं। उपासना का परिणाम ईश्वर के ज्ञान में निरन्तर वृद्धि से ईश्वर की निकटता बढ़ती जाती है। उपासना का परिणाम समाधि होता है और असम्प्रज्ञात समाधि उपासना की सर्वोत्कृष्ट व अन्तिम स्थिति है जिसमें ईश्वर का साक्षात्कार होता है। इस अवस्था में ईश्वर अपने स्वरूप का यथार्थ व वास्तविक स्वरूप उपासक के सम्मुख प्रस्तुत करता है जिससे जीवात्मा व उपासक कृत्य–कृत्य हो जाता है। शास्त्रों में उदाहरण मिलते हैं कि एक पतिव्रता स्त्री जिस प्रकार अपने स्वरूप को अपने पति पर प्रकाशित करती है वैसा ही ईश्वर अपने उपासक पर असम्प्रज्ञात समाधि में अपने स्वरूप का प्रकाश कर निभ्र्रान्त ज्ञान करता है। इस अवस्था को प्राप्त होने के बाद उस उपासक वा जीवात्मा को कुछ भी पाना शेष नहीं रहता। इस अवस्था का परिणाम मोक्ष की प्राप्ति है। इसका अर्थ है कि भावी समय में मृत्यु होने के पश्चात मनुष्य जन्म व मरण के चक्र से छूट कर मोक्ष को प्राप्त होता है। यह मोक्ष 31 नील 10 खरब 40 अरब वर्षों की अवधि का है जिसमें जीवात्मा बिना किसी योनि में जन्म लिए ईश्वर के सान्निध्य में रहकर असीम सुखों का भोग करता है। इसका विस्तृत विवरण सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थों में देखा जा सकता है जो सभी मनुष्य के लिए अवश्यमेव पठनीय है। इससे मनुष्य जन्म का उद्देश्य वैदिक कर्मों को करके मुक्ति प्राप्त करना भी सिद्ध होता है।
लेख को विराम देने से पूर्व कुछ चर्चा धर्म की भी कर लेते हैं। धर्म क्या है? धर्म उन कर्तव्यों के पालन करने का नाम है जिससे यह जीवन अभ्युदय या उन्नति को प्राप्त हो और मृत्यु होने पर जीवात्मा को मोक्ष प्राप्त हो। क्या इन कर्तव्यों का बोध कराने वाला संसार में कोई ग्रन्थ है? इसका उत्तर है कि चार वेद और इसके अनुकूल वैदिक साहित्य जिसमें 11 उपनिषद्, 6 दर्शन, प्रक्षेप रहित मनुस्मृति, सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ हैं, को पढ़कर धर्म अर्थात् मनुष्यों के कर्तव्यों को जाना जा सकता है एवं जीवन के उद्देश्य को प्राप्त किया जा सकता है। इसके साथ ही इस लेख को विराम देते हैं।
–मनमोहन कुमार आर्य
बहुत अच्छा लेख. अगर लोग अपने जीवन का एक उद्देश्य निर्धारित कर लें तो जीवन का पूरा लाभ और आनंद लिया जा सकता है.
आपको हार्दिक धन्यवाद। हम जीवन में एक के बाद दूसरा उदेश्य बनाते हैं एवं वह पूरे होते जाते हैं। मोक्ष एक ऐसा उद्देश्य है जो सभी प्राणियों का उद्देश्य है। यह कुछ कुछ अनंत की यात्रा है। प्राचीन ऋषि मुनियों ने इसे वेदाध्ययन एवं विवेक से जाना था जिसे बाद के सभी ऋषियों वा विद्वानो ने स्वीकार किया है। आत्मिक वा विद्या का सुख भौतिक सुखों से कहीं अधिक होता है। अतः हमारा लक्ष्य वा उद्देश्य बड़ा वा महान होना चाहिए। आपका पुनः धन्यवाद।
मनमोहन जी , लेख बहुत अच्छा लगा ,कभी कभी मैं हैरान हो जाता हूँ कि आप इतना कुछ कैसे लिख लेते हैं . आप की स्टडी बहुत ज़िआदा है . मैं हमेशा सच बोलने की कोशिश करता हूँ , अगर झूठ बोलना पड़े तो कोई किसी ख़ास बात पर ही बोलूँगा जिस को सच बोलने से नुक्सान हो. वरना मैं इतना धार्मिक नहीं हूँ लेकिन धार्मिक लोगों की कदर करता हूँ जो अछे काम करते हैं . मैं कभी यह नहीं देखता कि कोई कितना पाठ पूजा करता है , सिर्फ वोह ही देखता हूँ जो भगवान् जैसे चाहता है ऐसा करता है. अब तो मैं बूडा हो गिया हूँ लेकिन जिंदगी में ऐसे इंसानों से मिलाप हुआ जो रोज़ पाठ पूजा किया करते थे और लोगों की भलाई का काम भी करते थे. एक तो मेरे सवार्गीय बजुर्ग गियानी जी हुआ करते थे जो सिखों का धर्म ग्रन्थ पता नहीं कितनी दफा पड़ चुक्के थे और मज़े की बात यह है कि उन्हों को हर पुरातन लफ़्ज़ों के अर्थ आते थे. उन दिनों में जब यहाँ अंग्रेजी बोलने वाले लोग कम हुआ करते थे उनहोंने पता नहीं कितने लोगों की मदद की , उनके फ़ार्म भरते , उनके घरों को ख़त लिखते , उनके साथ दफ्तरों के काम के लिए ऐन्तार्प्रेटर बन कर जाते लेकिन कभी एक पैसा नहीं लिया किसी से . अगर वोह चाहते तो करोड़ों रूपए बना सकते थे . ऐसे लोग भी जिंदगी में आये जो कभी गुरदुआरे नहीं गए , ना ही कभी पाठ किया लेकिन उन्हों ने भी लोगों की बहुत मदद की. कुछ ऐसे भी देखे जिन्होंने धार्मिक होने का पाखंड किया और लोगों को खूब ठगा . अब अपनी बात फिर कहूँ , कभी कभी अपने गार्डन में बैठा फूलों की तरफ देखता हूँ , उस पर हज़ारों की तादाद में कीड़े मकौड़े कहीं से आ जाते हैं . कहाँ से आते हैं , समझ नहीं आती , मिसज़ उन पर सप्रे करती है नहीं तो वोह पौदों को खा जायेंगे . इसी तरह किसान फसल बीजता है , उस को भी सप्रे करनी पड़ती है नहीं तो उस की फसल नहीं होगी और वोह भूखा मर जाएगा . सोचता हूँ किसी जान को मारना पाप नहीं है ? धर्म तो यह ही कहता है , जानवर तो चाहे बैक्टीरिया हो चाहो बड़ा हो , जान तो जान है. हम दही खाते हैं , उस में करोड़ों बैनिफिशल बैक्टीरिया होते हैं . है तो वोह जान ही , तो उस को नहीं खाना चाहिए , कृपा इस पर रौशनी डालें , यह शंकाएं अक्सर मन में रहती हैं .
भाई साहब, दही में जो करोड़ों वैक्टीरिया होते हैं, उनके कारण ही दही बनता है. आप उन वैक्टीरियाओं से कभी बाख ही नहीं सकते. उनको खाने से कोई हानि या पाप नहीं है. लेकिन उपयोगी पशुओं को मारकर खाना तो महापाप है.शाकाहारी वस्तुएं इतने प्रकार कि है और इतनी स्वादिष्ट होती हैं कि मांसाहार करने की आवश्यकता ही नहीं है. अगर मजबूरी हो तो बात दूसरी है, जैसे बहुत सी जगह मछली खायी जाती है.
युक्तियुक्त प्रतिक्रिया के लिए धन्यवाद। मछली खाना आपद धर्म हो सकता है परन्तु इसे स्वाद के लिए खाना उचित नहीं हो सकता। आपद धर्म प्राणों की रक्षा के लिए होता है। आजकल देश भर में सभी प्रकार के शाकाहारी पदार्थ उपलब्ध है जो मांस से सस्ते होते हैं। अतः लांग टर्म इंटरेस्ट के लिए मछली का त्याग करना ही उत्तम है। पुनः धन्यवाद।
हार्दिक धन्यवाद, आदरणीय श्री गुरमेल सिंह जी। मैं जो यह कार्य करता हूं वह आत्मा व ईश्वर की प्रेरणा से कर रहा हूं। इससे मुझे सुकून मिलता है। विगत 40 वर्षों में जो अध्ययन किया है, यह कार्य उस अध्ययन का परिणाम है। आजकल भी 2 से 8 घण्टे पढ़ने का समय निकाल लेता हूं। सत्य बोलना जीवन का सबसे बड़ा तप है। सत्य ही धर्म है। जो व्यक्ति सत्य बोलता है, उसे सच्चा तपस्वी व ईश्वर भक्त कहा जाना चाहिये। शास्त्रों में कहा गया है कि सत्य पर चलना तलवार की तेल धार पर चलने के समान है। सत्य मार्ग का अनुसरण करने वाले को ईश्वर से सीधी सहायता प्राप्त होती है। आपने ज्ञानी जी के सद्कर्मों की चर्चा की है। ऐसे समाज हितैषियों पर ही यह संसार चल रहा है। उनकी पुण्य स्मृति को मेरा सादर प्रणाम। महर्षि दयानन्द ने व्यवहारभानु नामक ग्रन्थ में लिखा है धार्मिक मनुष्य सभी हो सकते हैं परन्तु विद्वान सभी नहीं हो सकते। ज्ञानी जी सच्चे धार्मिक पुरूष थे। हम भी ऐसा ही बनना चाहते हैं। ज्ञानी जी ने जो शुभ कर्म किये उनका भुगतान उन्हें ईश्वर के द्वारा अगले जन्म में अवश्य प्राप्त होगा। जो लोग पाखण्डी होते हैं वह इस जन्म में मौज करते हैं परन्तु उनका अगला जन्म इसकी कीमत चुकाने में व्यतीत होता है। कर्म के पक जाने पर ईश्वर फल देता है। अगले जन्म का मुख्य कारण ही इस जन्म के कर्म हैं जिनका फल भोगने के लिए पुनर्जन्म होता है। हमें किसी भी प्राणी, छोटे व बड़े को, बिना वजह के कष्ट नहीं देना चाहिये। दुखियों के दुःख दूर करना हमारा धर्म है। मेरा व्यक्तिगत मत है कि मनुष्य, पशु, पक्षी आदि तो जीव योनियां हैं। इनमें निश्चित रूप से स्वाभिमानी जीव होता है। यह किटाणुओं की योनि इनसे कुछ भिन्न है। हमें कुछ किटाणुओं से हानि पहुंचती है। इनसे बचाव करना हमारा कर्तव्य है। इनके कार्य ही इनके लिए दण्ड के भागी है। इनको मारना हमारी मजबूरी है। हम इनके बुरे प्रभाव के कारण ऐसा करते हैं। यह कुछ बुखार आदि में एण्टीबायटिक लेने जैसा है। ऐसा करने से भी कुछ पाप तो होता ही है। इस पाप से मुक्त होने के लिए हमारे ऋषियों ने अग्निहोत्र-हवन का प्राविधान किया है। इससे मनुष्य इस कार्य से होने वाले पाप से मुक्त हो जाता है। यह ऐसा ही है जैसे मजबूरी में किये अपराध की कम सजा मिलती है। फाइन देकर मुक्त कर दिया जाता है। यहां भी कुछ ऐसा ही है। यह यज्ञ व अग्निहोत्र एक प्रकार से इस प्रकार के अपराधों का फाइन है जो हम स्वयं सहर्ष करते हैं। इसी कारण ऋषि-मुनियों ने दैनिक यज्ञ करने का प्राविधान किया है। इस विषय पर विस्तार से विचार कर भविष्य में एक लेख तैयार करूगां। सादर धन्यवाद।