सपनो के क्षितिज के द्वार पर
तुम तक पहुँचना
संभव नहीं हैं
सपनो के क्षितिज के द्वार पर
तुम हो खड़ी
कांच के फलक के
उस पार इन्द्रधनुष है
पंखुरियों के मुरझाने का
जल प्रतिबिम्बों कों भी दुःख है
बबूल के काँटों सा यथार्थ नुकीला है
रहस्यमय हम स्वयं लगते हैं
यही तो हम सबका गुण है
मेरी प्रेम कहानी अनछपी है
तुम हो उसकी नायिका बड़ी
तुम तक पहुँचना
संभव नहीं है
सपनो के क्षितिज के द्वार पर
तुम हो खड़ी
सागौन के पत्तों पर भी सौभाग्य की रेखाए है
धूप से घिरी हुई छाया है
वन में एकांत जा ठहरा है
दीपशिखा कहती है
गहन तिमिर ने मुझे अजमाया है
तनहा मैं नहीं हूँ
ख्यालों में तो तुम मेरे सदा रहती हो
तुम तक पहुँचना
संभव नहीं है
सपनो के क्षितिज के द्वार पर
तुम हो खड़ी
धूप के जाल कों समेट कर
लौट जाती है संध्या
चाँद की दुधिया रोशनी में
नहाते हैं पर्वत और भवन
पेड़ भी मनुष्य सा लगता है
दूर से आधी रात कों अक्सर
रुकता नहीं मन रेल के भीतर भी
करता रहता है भ्रमण
प्रेम करना चाहों तो
बिखरा दो अपने अधरों पर
सूर्योदय सी एक हँसीं
तुम तक पहुँचना
संभव नहीं है
सपनो के क्षितिज के द्वार पर
तुम हो खड़ी
किशोर कुमार खोरेन्द्र
अच्छी कविता !
shukriya
वाह वाह , बहुत खूब .
shukriya