आओ, सर्वकामनासिद्धि हेतु वेदों के स्वाध्याय का व्रत लें
वेद हमें अपने आप से, ईश्वर से तथा इस ब्रह्माण्ड से हमारा परिचय कराते हैं। यह चार वेद वह ज्ञान है जो निराकार, सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सृष्टिकर्ता ईश्वर ने सृष्टि की आदि में प्रथम उत्पन्न चार मनुष्यों को दिया था। वेद ज्ञान सम्पन्न होने के कारण इन्हें ऋषि कहा जाता है। इनके नाम अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा थे। यह वेद ज्ञान ब्रह्माण्ड की सब सत्य विद्याओं की पुस्तकें हैं। अर्थात् वेदों में ईश्वर सम्बन्धी, जीवात्मा सम्बन्धी तथा प्रकृति व सृष्टि सम्बन्धी सत्य ज्ञान है। महर्षि दयानन्द ने इतिहास में पहली बार चार वेदों का संस्कृत व हिन्दी भाषा में सत्य भाष्य करने का अनुष्ठान आरम्भ किया था। वह कुल वेदों का लगभग आधा भाष्य ही कर सके। शत्रुओं द्वारा उनकी हत्या के अनेक प्रयास किए गये। उन्हें 18 बार विष दिया गया। अन्तिम बार विष दिये जाने से उनकी लगभग 59 वर्ष की आयु में मृत्यु हो गई। इस कारण वेद भाष्य का कार्य वह पूरा नहीं कर सके। उन्होंने अपने जीवन काल ने वेदों के मन्त्रों के सत्य अर्थ करने का मार्ग खोल दिया था जिससे यह सम्भव हुआ कि उनके बाद उनकी शिष्य मण्डली में से अनेकों ने चारों वेदों, एक या एक से अधिक वेदों के अनेक भाष्य लिखे हैं।
चार वेदों में 20 हजार 500 के लगभग मन्त्र हैं। वेदों पदों वा शब्दों के वर्तमान प्रचलित सभी भाषाओं की तरह रूढ़ अर्थ न होकर यौगिक–धात्वर्थ प्रक्रिया से अर्थ होते हैं। इसी प्रक्रिया काक अनुसरण कर उन्होंने वेदों का भाष्य किया है। महाभारत काल के बाद यह प्रक्रिया विलुप्त प्रायः हो गई थी जिसका अनुसंधान कर व अपने योग बल व सिद्धयों की सहायता से उन्होंने वेदों का अपूर्व भाष्य कर मानवजाति की अनुपम सेवा की। वेदभाष्य करने के लिए भाष्यकार को वेदतर अनेक ग्रन्थों का अध्ययन में प्रवीण होने के साथ एक योगी होना भी आवश्यक है। मांस–मदिरा का सेवन करने वाले व्यक्ति कितनी ही योग्यता प्राप्त कर लें परन्तु वह वेदों के सत्य अर्थ करने में समर्थ नहीं हो सकते। इसका कारण है कि वेद भाष्य करने में ईश्वर से जिस सहायता की अपेक्षा होती है, वह उनके मांसाहार व मदिरा सेवन आदि वेद विरूद्ध आचरण के कारण उन्हें प्राप्त होनी सम्भव नहीं है। लेख का विस्तार न कर हम यहां वेदों से सर्वथा अपरिचित बन्धुओं के लिए कुछ प्रमुख वेद मन्त्रों के हिन्दी भावार्थ दे रहे हैं जिससे वह वेदों से परिचित एवं लाभान्वित हो सकें।
गायत्री मन्त्र – ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियों यो नः प्रयोदयात्। यजुर्वेद 36/3 ।।
मन्त्र का भावार्थः ओ३म्, यह ईश्वर का मुख्य व निज नाम है। वह ईश्वर हमारे प्राणों का भी प्राण, दुःखनाशक व सुखस्वरूप है। उस सकल जगत् के उत्पादक प्रभु के ग्रहण करने योग्य तेज को हम धारण करें। वह प्रभु हमारी बुद्धियों को सन्मार्ग में प्रेरित करे। इस मन्त्र का अन्य भावार्थः– हे सर्वरक्षक, प्राणस्वरूप, दुःखों का नाश करने वाले, सर्व–सुख प्रदाता परमेश्वर ! आपने इस संसार को रचकर प्रकाशित किया है। हम आपके इस सविता–स्वरूप का वरण वा अनुकरण करते हैं। आप पाप व ताप के नाश करने वाले हैं। हे देव! हम आपके इस पाप व दुखों के नाशक तथा सुखों को देने वाले तेज आदि गुणों को धारण करें। ईश्वर के तेज व गुणों को धारण किए हुए हम लोगों की बुद्धियों को वह ईश्वर सन्मार्ग व सत्कर्मों में चलने की प्रेरणा करे जिससे हम अभ्युदय व निःश्रेयस को प्राप्त होंवे।
आचमन मन्त्र: ओ३म् शन्नो देवीरभिष्टयऽआपो भवन्तु पीतये। शंयोरभिस्रवन्तु नः।। यजुर्वेद 36/12
मन्त्र का भावार्थः– सबका प्रकाशक और सबको आनन्द देनेवाला सर्वव्यापक ईश्वर, मनोवांछित आनन्द अर्थात् ऐहिक सुख–समृद्धि के लिए और पूर्णानन्द अर्थात् मोक्ष के आनन्द की प्राप्ति के लिए हमको कल्याणकारी हो अर्थात् हमारा कल्याण करे। वही परमेश्वर हम पर सुखों की सदैव सब ओर से वर्षा करे।
देश–देशान्तर में लोकप्रिय ईश्वर की स्तुति–प्रार्थना–उपासना के 8 मन्त्रः–
प्रथम मन्त्रः ओ३म् विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव।
यद् भद्रन्तन्न आसुव।। यजुर्वेद 30/3।।
भावार्थः हे सकल जगत् के उत्पत्तिकत्र्ता, समग्र ऐश्वर्ययुक्त, शुद्धस्वरूप, सब सुखों के दाता परमेश्वर ! आप कृपा करके हमारे सभी दुर्गुण, दुव्र्यसन और दुःखों को दूर कर दीजिए और जो कल्याणकारक गुण, कर्म, स्वभाव और पदार्थ हैं, वह सब हमको दीजिए/प्राप्त कीजिए।
द्वितीय मन्त्रः ओ३म् हिरण्यगर्भः समवत्र्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्।
स दाधार पृथिवीन्द्यामुतेमाम् कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद 13.4 ।।
भावार्थः जो स्वप्रकाशस्वरूप और जिसने प्रकाश करनेहारे सूर्य, चन्द्रमा, पृथिवी आदि पदार्थ उत्पन्न करके धारण किये हैं, जो उत्पन्न हुए सम्पूर्ण जगत् का अपनी महिमा से प्रसिद्ध स्वामी एक ही चेतन स्वरूप था, जो सब जगत् के उत्पन्न होने से पूर्व वर्तमान था, वह इस भूमि और सूर्यादि को धारण कर रहा है, हम लोग उस सुखस्वरूप शुद्ध परमात्मा के लिए ग्रहण करने योग्य योगाभ्यास और अति प्रेम से विशेष भक्ति किया करें।
तृतीय मन्त्रः ओ३म् य आत्मदा बलदा यस्य विश्व उपासते प्रशिषं यस्य देवाः।
यस्य छायाऽमृतं यस्य मृत्युः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद 25.13।।
भावार्थः जो आत्मज्ञान का दाता, शरीर, आत्मा और समाज के बल का देनेहारा, जिसको सब विद्वान लोग उपासना करते हैं और जिसका प्रत्यक्ष सत्यस्वरूप शासन, न्याय, अर्थात् शिक्षा को मानते हैं, जिसका आश्रय ही मोक्ष–सुखदायक है, जिसका न मानना, अर्थात् भक्ति न करना ही मृत्यु आदि दुःख का हेतु है, हम लोग उस सुखस्वरूप सकल ज्ञान के देने हारे परमात्मा की प्राप्ति के लिए आत्मा और अन्तःकरण से भक्ति, अर्थात् उसी की आज्ञा पालन करने में तत्पर रहें।
चतुर्थ मन्त्रः ओ३म् यः प्राणतो निमिषतो महित्वैकऽ इद्राजा जगतो बभूव।
य ईशेऽअस्य द्विपदश्चतुष्पदः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद 23.3।।
भावार्थः जो प्राणवाले और अप्राणिरूप जगत् का अपनी अनन्त महिमा से एक ही विराजमान राजा है, जो इस मनुष्यादि और गौ आदि प्राणियों के शरीर की रचना करता है, हम लोग उस सुखस्वरूप, सकल ऐश्वर्य को देनेहारे परमात्मा के लिए अपनी सकल उत्तम समाग्री को उसकी आज्ञापालन में समर्पित करके विशेष भक्ति करें।
पांचवा मन्त्रः ओ३म् येन द्यौरूग्रा पृथिवी च दृढा येन स्व स्तभितं येन नाकः।
योऽअन्तरिक्षेरजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम।। यजुर्वेद 32.6 ।।
भावार्थः जिस परमात्मा ने तीक्ष्ण स्वभाववाले सूर्य आदि और भूमि को धारण किया है, जिस जगदीश्वर ने सुख को धारण किया है और जिस ईश्वर ने दुःखरहित मोक्ष को धाारण किया है, जो आकाश में सब लोक–लोकान्तरों को विशेष मानयुक्त, अर्थात् जैसे आकाश में पक्षी उड़ते हैं, वैसे सब लोकों का निर्माण करता और भ्रमण कराता है, हम लोग उस सुखदायक कामना करने के योग्य परब्रह्म की प्राप्ति के लिए सब सामथ्र्य से विशेष भक्ति करें।
छठा मन्त्रः ओ३म् प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नोऽअस्तु वयं स्याम पतयो रयीणाम्।। ऋग्वेद 10.121.10।।
भावार्थः हे सब प्रजा के स्वामी परमात्मन् ! आपसे भिन्न दूसरा कोई उन–इन (पूर्व व वर्तमान के) सब उत्पन्न हुए जड़–चेतनादिकों का नहीं तिरस्कार करता है, अर्थात् आप सर्वोपरि हैं। जिस–जिस पदार्थ की कामना वाले होके हम लोग भक्ति करें, आपका आश्रय लेवें और वांछा करें, उस–उसकी कामना हमारी सिद्ध होवे, जिससे हम लोग धनैश्वर्यों के स्वामी होवें।
सातवां मन्त्रः ओ३म् स नो बन्धुर्जनिता स विधाता धामानि वेद भुवनानि विश्वा।
यत्र देवाऽ अमृतमानशानास्तृतीये धामन्नध्यैरयन्त।। यजुर्वेद 30.10।।
भावार्थः हे मनुष्यों ! वह परमात्मा अपने लोगों का भ्राता के समान सुखदायक, सकल जगत् का उत्पादक, वह सब कामों का पूर्ण करनेहारा, सम्पूर्ण लोकमात्र और नाम–स्थान–जन्मों को जानता है और जिस सांसारिक सुख–दुःख से रहित नित्यानन्द–युक्त मोक्षस्वरूप धारण करनेहारे परमात्मा में मोक्ष को प्राप्त होकर विद्वान् लोग स्वेच्छापूर्वक विचरते हैं, वही परमात्मा अपना–हमारा गुरू, आचार्य, राजा और न्यायाधीश है। अपने लोग मिलके सदा उसकी भक्ति किया करें।
आठवां मन्त्रः ओ३म् अग्ने नय सुपथा रायेऽअस्मान् विश्वानि देव वयुनानि विद्वान।
युयोध्यस्मज्जुहुराणमेनो भूयिष्ठान्ते नमऽउक्तिं विधेम।। यजुर्वेद 40.16।।
भावार्थः हे स्वप्रकाश, ज्ञानस्वरूप, सब जगत् के प्रकाश करनेहारे सकल सुखदाता परमेश्वर ! आप जिससे सम्पूर्ण विद्यायुक्त हैं, कृपा करके हम लोगों को विज्ञान वा राज्यादि ऐश्वर्य की प्राप्ति के लिए अच्छे, धर्मयुक्त, आप्त लोगों के मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञान और उत्तम कर्म प्राप्त कराइए और हमसे कुटिलतायुक्त पापरूप कर्म को दूर कीजिए। इस कारण हम लोग आपकी बहुत प्रकार की स्तुतिरूप नम्रतापूर्वक प्रशंसा सदा किया करें और सर्वदा आनन्द में रहें।
सन्ध्या का उपस्थान मन्त्र जिसमें 100 वर्ष व अधिक स्वस्थ व आत्मनिर्भर रहकर जीवित रहने की प्रार्थना है।
मन्त्रः ओ३म् तच्चक्षुर्देवहितं पुरस्ताच्छुक्रमुच्चरत्।
पश्येम शरदः शतं जीवेम शरदः शतं श्रृणुयाम शरदः शतम्प्रब्रवाम शरदः शतमदीनाः
स्याम शरदः शतम्भूयश्च शरदः शतात्।। यजुर्वेद 26.24।।
भावार्थः वह ईश्वर सर्वद्रष्टा, भक्तों का हितकारी तथा परम पवित्र है। वह सृष्टि के पूर्व से ही वर्तमान है। उसकी कृपा से हम सौ वर्ष तक देखें, सौ वर्ष तक जीवें, सौ वर्ष तक सुनें तथा सौ वर्ष तक बोलें। सौ वर्ष तक स्वतन्त्र, स्वाश्रित, स्वाधीन व आत्मनिर्भर होकर रहें और उसी परमेश्वर की कृपा से सौ वर्ष से अधिक भी हम लोग देखें, जीवें, सुनें–सुनावें और स्वतन्त्र रहें।
मन्त्रः ओ३म् स पर्यगाच्छुक्रमकायमव्रणमस्नाविरम् शुद्धमपापविद्धम्।
कविर्मनीषी परिभूः स्वयम्भूर्याथातथ्यतोऽर्थान् व्यदधाच्छाश्वतीभ्यः समाभ्यः।। यजुर्वेद 40.8।।
भावार्थः वह परमात्मा हमारे चारों ओर व ब्रह्माण्ड में सर्वत्र व्याप्त है, सर्वव्यापक है, तेजस्वी है, शरीररहित है, घावरहित है, नस–नाडि़यों से रहित है, पवित्र है, पाप से विद्ध नहीं है। वह मेधावी है, क्रान्तद्रष्टा है, बुद्धिमान है, दुष्टों को तिरस्कृत करने वाला है, स्वयम्भू है। उसने यथातथ रूप में अर्थात् जैसे होने चाहिएं वैसा पदार्थों को रचा है।
हमने लेख में कुछ मन्त्रों को नमूने के रूप में प्रस्तुत किया है। इन मन्त्रों को देखकर यदि किसी बन्धु जिसने वेद नहीं देखे या वेदों से सर्वथा अपरिचित हैं, उन्हें वेदों की स्वाध्याय की प्रेरणा हो सके, ऐसा लेखक का विनम्र प्रयास है। हम पाठकों से महर्षि दयानन्द सरस्वती की सत्यार्थ प्रकाश, आर्याभिविनय और ऋग्वेदादि भाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों को पढ़ने की सम्मति देते हैं। इनके अध्ययन से आपको वेदों एवं हमारे ऋषियों के ज्ञान की सर्वोत्कृष्टता का ज्ञान होगा और जीवन की सही दिशा व मार्ग प्राप्त होगा। वेदों के अनुसार मनुष्य का उद्देश्य वेद विहित सद्कर्मों को करके धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष की प्राप्ति करना है। वेदाचरण से घर्म, अर्थ व काम हमारे इसी मनुष्य जीवन में प्राप्त होते हैं और मोक्ष अर्थात् जन्म–मरण से अवकाश व छुट्टी मृत्यु के बाद मिलती है। मृत्यु के बाद मनुष्य वा सभी जीवात्माओं को पुनः जन्म लेना होता है। मनुष्य की जीवात्मा के माता के गर्भ में 9 से 10 महीने निवास करना पड़ता है। यह एक प्रकार की जेल है जहां जीवात्मा को सुख तो मिलने का प्रश्न ही नहीं उठता। यह दुःख की स्थिति है जैसी की जेल में होती है। हमारी आजकल की जेले भी माता के गर्भ से अच्छी बन गई हैं जहां कैदी सुखपूर्वक रहते हैं। कोई भी विज्ञ व गुणी व्यक्ति जेल जाना नहीं चाहता। बार–बार मां के गर्भ की इस जेल से मुक्ति का एक ही उपाय है कि वेदों के अनुसार जीवन व्यतीत करना जिससे दुःखों की सदा–सदा के लिए निवृत्ति वा मुक्ति हो। इसी लिए ईश्वर ने इस सृष्टि को बनाकर नाना पदार्थ बनायें और मनुष्यों को जीवन मुक्त होने के लिए वेदों का ़ज्ञान दिया। हमारी इच्छा थी कि हम और अधिक महत्ता वाले मन्त्रों को प्रस्तुत करें परन्तु विस्तार भय से सीमित रहना पड़ा है। हमारा यह भी मानना है कि जो व्यक्ति वेदों के अनुसार सन्ध्या–उपासना व यज्ञ आदि नहीं करते एवं इनसे पूरी तरह से अपरिचित हैं, यदि वह इन मन्त्रों का ही प्रातः सायं अर्थ सहित पाठ कर लें और उन पर चिन्तन करें तो उन्हें शारीरिक, सामाजिक व आध्यात्मिक लाभ अवश्य होगें। आईये, वेदों के अध्ययन का व्रत लेकर जीवन को सफल करें जिसके लिए महर्षि दयानन्द सरस्वती ने अपने जीवन में अपूर्व पुरूषार्थ एवं दुःखों को सहन कर अमृत सम वेदरस हमें प्रदान किया है। इसका पान करना हमारे हाथ में है।
–मनमोहन कुमार आर्य
अंतिम दो मन्त्रों के अलावा अन्य सभी मन्त्रों का पाठ दैनिक यज्ञ के पूर्व किया जाता है. ये सारे मन्त्र मुझे अर्थ सहित कंठस्थ हैं. इनको प्रस्तुत करने के लिए बहुत बहुत धन्यवाद.
हार्दिक धन्यवाद। यह लेख मैंने श्री गुरमेल सिंह भमरा जी की एक टिप्पणी से प्रेरित होकर लिखा है। यदि उन्हें पसंद आता है तो अच्छा है। आपको संध्या व यज्ञ में प्रयोग किये जाने वाली मंत्र अर्थों सहित कंठस्थ है, यह जानकार मन प्रसन्न हुआ। मेरा अनुमान है कि कुछ भी न करने वाला व्यक्ति यदि इतने ही मंत्र कंठस्थ कर ध्यान पूर्वक इनका उच्चारण करे तो इससे मनोवैज्ञानिक लाभ के साथ ईश्वर में श्रद्धा भक्ति भी उत्पन्न हो सकती है और उसे आध्यात्मिक लाभ प्राप्त हो सकता है।
मनमोहन जी , लेख बहुत अच्छा लगा . अगर इन को पड़ कर इंसान सोच समझ कर अपनी जिंदगी को चलाए तो धरती पर ही स्वर्ग है . दुःख इस बात का है कि बहुत धर्म की पुस्तकों को पड़ते तो हैं लेकिन उन पर अमल नहीं करते , इसी लिए इस संसार में कष्ट दुःख और हाहाकार है . मैं शाएद पहले भी लिख चुक्का हूँ कि मैं इतना धार्मिक नहीं हूँ लेकिन जो मैंने बचपन से देखा है उस का मुझ पर परभाव बहुत है. जो मैं इर्द गिर्द देखता हूँ उस को देख कर मन को दुःख होता है . हम सिख हैं और कल ही एक औरत हमारे घर आई थी और मिसस्ज़ को बोल रही थी ,” भैन जी तुम रह रस का पाठ किया को , इस का फल बहुत मिलता है ” मैं सब सुन रहा था लेकिन मैंने कुछ बोला नहीं किओंकि उस इस्त्री का चलन कुछ ऐसा रहा है कि लिखने में ही शर्म आएगी . ऐसे ही मैंने तीन गुर्दुआरों में बचपन में कुछ होता हुआ देखा है , एक मंदिर में भी देखा है , यह बातें मेरे मन से निकलती नहीं . आज पैरस में जो हुआ हम सब जानते हैं , जो आइसस कर रहे हैं वोह हम सब को पता है और वोह अपने आप को सच्चे मुसलमान बोलते हैं . ऐसी बातों को देख सुन कर मन में आता है कि किया ग्रन्थ पड़ना ही जरुरी है या उस पे अमल करना भी . कभी कभी मैं गुरु नानक और अन्य गुरुओं के जीवन को पड़ता हूँ , जितना भी पड़ा बहुत गियान मिला लेकिन जब मैं गुर्दुआरों में देखता हूँ तो सिर्फ कर्म काण्ड ही दिखाई देता है और कुछ नहीं . बस इसी लिए कोई भगवान् की बात छिड़े तो तंग आ कर मैं कह देता हूँ कि मैं तो नास्तिक हूँ .
आपकी बात सवा सोलहो आने सच है भाई साहब. लोग उपदेश तो करते हैं, पर खुद अमल नहीं करते. बहुत से लोग पाठ को एक कर्मकांड की तरह निबटाते हैं. उसमें क्या कहा गया है और क्यों कहा गया है इस पर कोई ध्यान नहीं देते. बहुत सी समस्याओं का यही कारण है. इसी से पाखंड बढ़ता है.
आपकी बात सूर्य के प्रकाश की तरह स्पष्ट है। धर्म विरुद्ध आचरण का कारण कर्म फल सिद्धांत को न जानना है एवं ज्ञान, अविद्या, स्वार्थ आदि भी है।
आपके विचार शत प्रतिशत सत्य हैं। हमें दूसरे बुरे लोगो को देखकर निराश और हताश नहीं होना है। हमें सत्य को मानना और मनवाना है। नियम है कि सत्य के ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए। सब काम धर्म के अनुसार अर्थात सत्य और असत्य को विचार कर करने चाहिए। शहीद भगत सिंह जी का उदहारण हमारे सामने है। उस समय भी बहुत से लोग अंग्रेजों की चाकरी कर राय बहादुर आदि बने हुए थे और देश से गद्दारी कर रहे थे। आज उन्हें कोई नहीं जानता परन्तु भगत सिंह जी अमर हैं। आज हम उनकी और अन्य देश भक्तों की कुर्बानियों के कारण सुख भोग रहे हैं। हमें अच्छे लोगो का अनुकरण करना है न की बुरे लोगो से निराश होकर सत्य को छोड़ना है। प्रतिक्रिया के लिए आपको हार्दिक धन्यवाद।
सही कहते हैं आप. जब कभी मेरा मन खिन्न होता है, तो मैं इन मन्त्रों को मन ही मन अर्थ सहित दोहरा लेता हूँ. ससे मुझे बहुत शान्ति प्राप्त होती है और प्रभु पर विश्वास दृढ़ होता है.
नमस्ते महोदय ! आपका कहना बिलकुल ठीक है। मैं आपसे पूरी तरह सहमत हूँ। शांति मिलने और ईश्वर पर विश्वास दृढ़ होने का कारण है कि हमारी आत्मा में सर्वान्तर्यामी रूप से विराजमान ईश्वर को हमारी प्रार्थना स्वीकार हो गई है। आपको हार्दिक धन्यवाद।