उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 31)

अपने स्कूल की राजनीति में तो मैं सक्रिय और प्रमुख भाग अदा करता ही था, विश्वविद्यालय स्तरीय राजनीति में भी मैं सक्रिय भाग लेता था। जैसा कि मैं पहले कह चुका हूँ हमारे वि.वि. का वातावरण लोकतांत्रिक था। वहाँ छात्रसंघ के चुनाव भी छात्रों की ही देखरेख में पूर्णतया लोकतांत्रिक रीति से होते थे। चुनाव प्रचार में पैसे या रौब दाब का नहीं बल्कि विचारों का अधिक महत्व था। हमारे वि.वि. की राजनीति ज्यादातर शान्तिपूर्ण रहती थी। चुनावों के समय अध्यक्ष पद के सभी उम्मीदवार एक ही मंच से भाषण देते थे तथा उनमें किसी भी प्रकार की कटुता उत्पन्न नहीं हो पाती थी।

ज.ने.वि. के छात्रों की विचारधाराओं में गम्भीर मतभेद होते थे। वहाँ पर जहाँ हम जैसे जनसंघी थे, वहीं घोर चीन-समर्थक नक्सलवादी भी पर्याप्त संख्या में थे। लेकिन वहाँ माक्र्सवादी छात्र संगठन एस.एफ.आई. बहुत ताकतवर था। दूसरे नम्बर पर फ्री थिंकर्स नाम का एक गुट था जिसके सदस्य प्रायः आभिजात्य वर्ग की औलादें थीं। यह गुट केवल चुनावों के समय ही सक्रिय होता था। लोहिया समर्थक समाजवादी तथा कम्यूनिस्ट भी पर्याप्त संख्या में थे और जनसंघी विचारधारा के छात्रों की संख्या 50-60 से अधिक नहीं थी। कांग्रेसी मात्र 10-20 थे। यानी कुल मिलाकर वहाँ का वातावरण प्रायः वामपंथी था और लगभग सारे छात्र घोर कांग्रेस-विरोधी थे।

दूसरे विश्वविद्यालयों के विपरीत जहाँ चंद गुण्डा-टाइप छात्र नेता सारी राजनीति पर कब्जा किये रहते हैं और आम छात्र उनसे दूर ही रहते हैं, हमारे विश्वविद्यालय के अधिकतर छात्र राजनीति में सीधा दखल रखते थे। इसका कारण शायद यह था कि अधिकतर छात्र राजनैतिक रूप से जागरूक थे और उन्हें जल्दी बुद्धू नहीं बनाया जा सकता था। वहाँ लगभग प्रति सप्ताह कोई न कोई बड़ा नेता अपने विचार प्रकट करने के लिए आता रहता था। उन्हें अपने भाषण के उपरान्त छात्रों के तीखे प्रश्नों का जबाब भी देना पड़ता था। स्व. पीलू मोदी, श्री सुब्रह्मण्यम् स्वामी तथा श्री अरुण जैटली जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में नियमित आने वालों में थे।

विश्व के किसी भी भाग में घटने वाली किसी महत्वपूर्ण घटना की प्रतिक्रिया किसी न किसी रूप में जे.एन.यू. में हो जाती थी चाहे वह फूलन देवी द्वारा किया गया नरसंहार हो या रूस द्वारा अफगानिस्तान पर आक्रमण किया गया हो। यह छात्रों की जागरूकता के कारण ही संभव था। लगभग प्रति सप्ताह वहाँ किसी व्यक्ति या घटना या विरोध में जुलूस निकल जाता था। जे.एन.यू. इस हिसाब से बहुत संवेदनशील था। ‘अमीर’ ने कहा है –
काँटा लगे किसी को तड़पते हैं हम अमीर।
सारे जहाँ का दर्द हमारे जिगर में है।।

यह बात ज.ने.वि. के छात्रों पर शत प्रतिशत सही बैठती थी। विश्वविद्यालय की मैसों (भोजनालयों) तथा कैन्टीनों में अलग-अलग तरह के पोस्टरों की भरमार रहती थी, जिनमें नारों से लेकर कविताओं और चुनौतियों से लेकर कार्टून तक लिखे रहते थे। कई छात्र केवल पोस्टरों से राजनीति करते थे। वहाँ कई ऐसे प्रतिभाशाली छात्र थे, जिनका शौक था नये-नये पोस्टर लगाकर लोगों की ज्ञानवृद्धि करना।
एक बार एक छात्र ने एक पोस्टर पर यह नारा लिख दिया था-
इन्दिरा गाँधी कैसी है?
फूलन देवी जैसी है।
इसके जवाब में किसी अन्य ने उसी के नीचे अपनी निम्न टिप्पणी लिख दी थी-
‘यह तो फूलन देवी का अपमान है।’
इस एक उदाहरण से ज.ने.वि. के छात्रों की बौद्धिकता और जागरूकता का अनुमान लगाया जा सकता है।

ऐसे ही वातावरण में मेरी राजनैतिक दीक्षा हुई। प्रथम वर्ष में मैं किसी संगठन विशेष से जुड़ा हुआ नहीं था। उन दिनों अ.भा. विद्यार्थी परिषद का अस्तित्व वि.वि. में नहीं था। संघ की विचारधारा का होने के कारण मेरी सहनुभूति विद्यार्थी परिषद के साथ ही थी, लेकिन उसका अस्तित्व न होने से मैं प्रायः समाजवादियों और लोहियावादियों का समर्थन करता था और उनके क्रिया कलापों में भी भाग लेता था। उनकी एक पार्टी थी – समता युवजन सभा, जिसका मैं चवन्नी छाप सदस्य भी था। उनके द्वारा चलाये गये आन्दोलनों आदि में मैंने सक्रिय भाग लिया था। एक बार मैं उनके साथ सामूहिक अनशन पर भी बैठा था।

अगले वर्ष अ.भा. विद्यार्थी परिषद के कुछ नये और कट्टर समर्थक विश्वविद्यालय में प्रवेश लेकर आये। उनसे परिचय होने पर हमने विधिवत् विद्यार्थी परिषद की ज.ने.वि. में स्थापना की। श्री संजय सत्यार्थी को उसका संयोजक तथा मुझे कार्यवाहक बनाया गया। हमारे लगभग 30 पक्के और सक्रिय समर्थक थे, लेकिन सहानुभूति रखने वालों की संख्या लगभग 100 थी। हमने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सायंकालीन शाखा भी कैम्पस के अन्दर लगाना शुरू किया जो काफी समय तक चलती रही, लेकिन उसकी संख्या 20 से ऊपर नहीं जा सकी। यह संख्या भी काफी उत्साहवर्धक थी, क्योंकि इससे पहले वहाँ कोई संघ का नाम लेने वाला भी नहीं था। हमारी शाखा लगाने के लिए उस समय आई.आई.टी, नई दिल्ली में पढ़ाने वाले डा. दुर्ग सिंह चैहान आया करते थे, जो बाद में उ.प्र. तकनीकी विश्वविद्यालय के उपकुलपति पद पर भी रहे।

अ.भा. विद्यार्थी परिषद से सम्बन्धित रहते हुए मैंने बहुत राजनैतिक क्रियाकलापों में भाग लिया और मैं ऐसे हर कार्य में अग्रिम पंक्ति में रहता था। यह मेरी पढ़ाई के दूसरे और तीसरे साल की बात है। जब मैं अपनी गले की बीमारी से जुझता हुआ एम.फिल. पूरा करने की कोशिश कर रहा था।

मैं प्रारम्भ से ही कविताएं आदि लिखने में रुचि रखता था। मेरी कविताएं मेरे कुछ गिने चुने सहपाठियों को काफी पसन्द आयी थी। उनके ही आग्रह से मैं दो तीन बार वि.वि. में आयोजित होने वाली कवि गोष्ठियों में भी शामिल हुआ था और अपनी गज़लें पढ़ी थीं।

उर्दू शायरी में अपनी रुचि के कारण मैं विश्वविद्यालय के मुस्लिम छात्रों में काफी लोकप्रिय हो गया था। वैसे मैं धर्म के आधार पर किसी भी भेदभाव के पक्ष में नहीं हूँ। लेकिन रा.स्व.संघ का समर्थक होने के कारण लोग गलती से यह समझते थे कि हम मुसलमानों तथा अन्य धर्मवालों से नफरत करते हैं, जबकि यह बात सत्य नहीं है। जब ऐसी आशंका रखने वाले लोग मेरे नजदीक आते थे और मेरे धर्मनिरपेक्ष और मानवतावादी विचारों को सुनते थे तथा मेरी दैनिक गतिविधियों को भी देखते थे कि तो उन्हें बहुत आश्चर्य होता था कि मैं संघ का समर्थक क्यों हूँ। यह समझाने में मुझे बहुत परिश्रम करना पड़ता था कि मेरे जो विचार हैं वे संघ के ही है और तुम संघ को पास से देखोगे तो पाओगे कि हम किसी भी धर्म या जाति के खिलाफ नहीं हैं। लेकिन लोगों को इस पर विश्वास नहीं होता था और मुझसे कहते थे कि तुम संघ के नहीं हो। कई कम्यूनिस्ट और मुस्लिम छात्र प्रायः मुझसे ऐसा कहा करते थे।

उन्हीं दिनों मैंने फाॅरट्रान प्रोग्रामिंग भाषा के शब्दों के आधार पर एक कविता लिखी थी, जो मेरे साथियों को काफी पसन्द आयी थी। वे कभी-कभी मुझसे यह कविता सुनाने का आग्रह करते थे और मैं उनकी इच्छा पूरी कर देता था। आप भी इस कविता का आनन्द लीजिए-

फाॅरट्रान में प्यार

प्रिये
मैं बुरी तरह तुम्हारे प्यार के डू-लूप में फँस गया हूँ।
मेरी जिन्दगी के फ्लोचार्ट का
सारा लाॅजिक गड़बड़ा गया है।
मुझे आश्चर्य है कि
हम दोनों कहीं भी तो इक्विवेंलेंट नहीं हैं,
पचपन इंच है तुम्हारा डाइमेंशन
और मेरा है केवल दस
काॅमन सिर्फ इतना है कि
दोनों प्यार में पड़ गये हैं, बस!
मैंने तुम्हें कितने ही स्टेटमेंट दिये,
सैकड़ों बार राइट किया,
और कई बार काॅल भी किया,
पर,
तुमने उनमें से एक भी एक्जीक्यूट नहीं किया!
जाने कितने गो-टू का पालन करके
मैं तुम्हारे घर के दरवाजे तक पहुँचा,
मगर
तुम्हारे पापा के चेहरे को रीड करके
मेरा फाॅरमैट बिगड़ गया,
दिल की धड़कनें ओवरफ्लो हो गयीं,
मुझे वहाँ से रिटर्न होना पड़ा।
सोचता हूँ-
यह सबरूटिन कब तक काॅण्टीन्यू रहेगा
कहीं न कहीं तो
इसे स्टाॅप देना ही पड़ेगा।
इफ
तुम्हारी तरफ से कम्पाइलेशन ओ.के. हुआ,
दैन
मेरा प्रोग्राम सफल हो जाएगा,
ऐल्स
मेरे जीवन का एंड हो जाएगा।

एक दिन की बात है, हमारे स्कूल का एक कमरा खाली था उसमें एक बाहर का लड़का और एक लड़की, जो दोनों ही मुस्लिम थे और हमारे वि.वि. के किसी अन्य स्कूल में पढ़ते थे, ‘मीर’ का निम्नलिखित शेर उर्दू और हिन्दी में बोर्ड पर लिख रहे थे-
अशफाक की मंजिल से गया कौन सलामत?
असबाब लुटा राह में याँ हर सफरी का।

इत्तफाक से उसी समय मैं वहाँ पहुँच गया। इस शेर को पढ़कर मैंने उनको निम्नलिखित शेर सुनाया-
हिरासां हो न हरगिज रहजनों से राहे-उल्फत में।
जो इस रस्ते में लुट जायें बड़ी तकदीर वाले हैं।।

यह शेर को सुनकर वे दोनों ‘वाह-वाह’ कर उठे। उन्होंने मेरा नाम पूछा। उन्होंने समझा था कि मैं भी मुसलमान हूँ। लेकिन जब मैंने बताया- ‘विजय कुमार सिंघल’, तो वे और भी आश्चर्यचकित हुए कि यह हिन्दू होते हुए भी इतनी अच्छी उर्दू शायरी जानता है। उसके बाद जब भी उन दोनों में से कोई मुझे आते-जाते मिलते थे तो ‘हैलो’ जरूर करते थे।

कुल मिलाकर मैं ज.ने.वि. में काफी रम गया था। मैं सोचा करता था कि यदि कभी अचानक वि.वि. छोड़ना पड़ा तो मेरी सारी गतिविधियों का क्या होगा।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

8 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 31)

  • इंतज़ार, सिडनी

    वाह विजय जी Fortran की कविता ने तो रंग जमा दिया ….technically बिलकुल सही है हर statement

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद जी. इसे कोई कम्प्यूटर प्रोग्रामर ही सही सही समझ सकता है.

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई , कथा तो आगे बडती जा रही है लेकिन मैं एक बात को लेकर हैरान हूँ कि भारत में सिआसत इतनी हर देश वासी के खून् में रच चुक्की है कि एक नए धर्म जैसी बन चुक्की है . १९६२ में मैंने कालिज छोड़ा था और उस वक्त विदार्थी यूनियन की इलेक्शन तो कलरफुल होती थी लेकिन मैंने कभी इस में भाग नहीं लिया था . यहाँ कालिज यूनिवर्सतिओन में कोई ख़ास सिआसत है ही नहीं , न कोई इस की बौदर करता है . अब मुझे यकीन और समझ आ गई कि भारत के टीवी चैनल पर सिआसत का इतना जोर शोर किओं है . हर भारती सिआसत में धर्म की तरह सीरीअस है. एक मैं बेनती आप से करूँगा कि कभी जब वक्त मिले तो , राष्ट्रीय संग , बजरंग दल और अन्य हिन्दू संघठनों की विचार धारा किया है ? के बारे में लिखना . मैं जान्ने के लिए उत्सुक हूँ . हो सकता है कुछ ऐसी गलत फैह्मिआं हों जो लोगों को पता न हो .

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, भाई साहब. इस आत्मकथा की अगली कड़ी संघ से मेरे जुड़ाव के बारे में ही है. संघ की विचार धारा के बारे में एक अलग लेख जल्दी ही इस वेबसाइट पर डालूँगा. ऐसा लेख मैंने अपने ब्लॉग के लिए लिखा था. उसे खोजकर लगाऊंगा. संघ के बारे में बहुत से लोगों को बहुत गलतफहमियां हैं जो कांग्रेस और कम्युनिस्टों के गलत प्रचार से पैदा हुई हैं, वर्ना आम जनता में संघ की बहुत अच्छी छवि है. यह प्रश्न उठाने के लिए आपका पुनः आभार !

  • Man Mohan Kumar Arya

    संसार, देश, समाज तथा व्यक्ति के जीवन में हर क्षण कुछ न कुछ घटता रहता है। यह घटनाएँ ही हमारा खट्टी मीठी यादें बन जाती है। आपके वर्णन से आपके बहुआयामी व्यक्तित्व के दर्शन होते है। आप विद्यार्थी जीवन में विद्यालय की राजनीति, कविता और शेरो-शायरी एवं आरएसएस-विद्यार्थी परिसद की गतिविधिओं में सक्रीय भाग लेते थे यह आपके व्यक्तित्व को बहु प्रतिभा संपन्न बनाने का साधन बना है। भावी जीवन में पूर्व में किये हुए कार्यों का लाभ मिलता रहता है। आप jnu में किस वर्ष में रहे हैं जानने की इच्छा है। आपका जीवन वृत्त एक रोचक कहानी या उपंन्यास की भांति सुकून देता है और हमें आपकी स्मृतियों से एकाकार कराता है। हार्दिक धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभारी हूँ, मान्यवर ! मैंने जुलाई 1980 में जनेवि में प्रवेश लिया था और जून 1983 तक वहां का विद्यार्थी रहा. उसी वर्ष मेरी एम् फिल पूरी हुई थी.

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद !

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