बावजूद इन सबके
कभी आईना मेरे सामने था
कभी दीवारे थी
कभी पत्थर थे
कभी सूना जंगल था
कभी घाटियाँ थी
कभी समुद्र थे ..लहरे थी
कभी भीड़ थी
सड़के थी
बावजूद इन सबके
इस यात्रा में मैं अकेला ही रह गया
चौराहों पर खड़ी हुई कुछ मूर्तियाँ मिली
कुछ महा वाक्य मिले
सीढियों से चड़ता गया
पगडंडियों से उतरता गया
कभी शिखर मिला तो कभी खाई मिली
कभी जुड़ता रहा कभी टूटता गया
इसी तरह
वक्त के हाथों की पकड़ से
धीरे धीरे छूटता गया
किशोर कुमार खोरेन्द्र
जीना इसी का नाम है , और कुछ नहीं.
वाह वाह !