सोचो
एक स्थान है ,
उसका नाम है,
नाम है उसका,
धनगांई!!!!!!!!!
वहाँ गया था एकबार मैं,
समझ नहीं पाया कुछ मैं,
लगभग रहा वहाँ कुछ दिन मैं,
लापरवाही के आलावा नहीं कुछ देखा मैं,
सरकार से लेकर जनता तक,
समझ नहीं पाते कुछ ढंग।
चलता था वहाँ पर विद्यालय,
एक सेलेकर दश तक संग।
कक्ष की हालत जर्जर थी वहाँ,
तीन कक्ष थे मात्र वहाँ,
एक वरामदा दो रूम थे वहाँ,
बच्चे पढते कष्ट में वहाँ।
इतना ही नहीं वहाँ और क्या हो रहा था?
छ: से आठ की पढ़ाई कक्ष-१ में हो रहा था।
तिन से पांच की पढ़ाई कक्ष -२ में हो रहा था।
दो से तीन की पढ़ाई बरामदा में हो रहा था।
माध्यमिक विद्यालय हुअे दो साल हुआ था।
लेकिन नव दश का नमांकन नहीं हुआ था।
एक प्रभारी दूसरे पर टालमटोल करता था।
भविष्य, एक विद्यालय का यही था।
“सोचो” क्या होगा वहाँ का भविष्य,
बच्चे थे अपने में सब मग्न।
उन्हें क्या पता अपना भविष्य,
किसी का नहीं था उस पर ध्यान।
कैसे होगा,
क्या होगा,
नहीं होगा,
कल्याण !!
— रमेश कुमार सिंह
भारत के भविष्य के लिए यह बहुत दुखद बात है. इस का अर्थ किया मैं यह समझूं कि १९५० में जो गाँवों का हाल हुआ करता था , अब भी वोही है ?
बढ़िया। सभी गाँवों के विद्यालयों का लगभग यही हाल है।