कविता

सर्दी: दो मुक्तक

 

ठिठुरती इन हवाओं ने दिखाए रंग सर्दी के
सिसकती सी फिजाओं ने सिखाये ढंग सर्दी के
काँपती हैं घटायें भी सिहरते हैं सभी पंछी
सभी दिन रात भी अब तो हुए हैं संग सर्दी के

पेड़ों ने भी ओढ़ी है छालों की बड़ी कम्बल
कांपती है नदी ठंडी कांपते हैं सभी जंगल
किरनें भी ये सूरज की ठिठुरती हैं लगे ऐसा
मचा है इन हवाओं में कपाने का बड़ा दंगल

__सौरभ

सौरभ कुमार दुबे

सह सम्पादक- जय विजय!!! मैं, स्वयं का परिचय कैसे दूँ? संसार में स्वयं को जान लेना ही जीवन की सबसे बड़ी क्रांति है, किन्तु भौतिक जगत में मुझे सौरभ कुमार दुबे के नाम से जाना जाता है, कवितायें लिखता हूँ, बचपन की खट्टी मीठी यादों के साथ शब्दों का सफ़र शुरू हुआ जो अबतक निरंतर जारी है, भावना के आँचल में संवेदना की ठंडी हवाओं के बीच शब्दों के पंखों को समेटे से कविता के घोसले में रहना मेरे लिए स्वार्गिक आनंद है, जय विजय पत्रिका वह घरौंदा है जिसने मुझ जैसे चूजे को एक आयाम दिया, लोगों से जुड़ने का, जीवन को और गहराई से समझने का, न केवल साहित्य बल्कि जीवन के हर पहलु पर अपार कोष है जय विजय पत्रिका! मैं एल एल बी का छात्र हूँ, वक्ता हूँ, वाद विवाद प्रतियोगिताओं में स्वयम को परख चुका हूँ, राजनीति विज्ञान की भी पढाई कर रहा हूँ, इसके अतिरिक्त योग पर शोध कर एक "सरल योग दिनचर्या" ई बुक का विमोचन करवा चुका हूँ, साथ ही साथ मेरा ई बुक कविता संग्रह "कांपते अक्षर" भी वर्ष २०१३ में आ चुका है! इसके अतिरिक्त एक शून्य हूँ, शून्य के ही ध्यान में लगा हुआ, रमा हुआ और जीवन के अनुभवों को शब्दों में समेटने का साहस करता मैं... सौरभ कुमार!

2 thoughts on “सर्दी: दो मुक्तक

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छा , मन लुभावने वाले अछे दिन भी जल्द आएँगे २६ जनवरी के बाद .

  • विजय कुमार सिंघल

    वाह वाह ! अच्छे मुक्तक !! सर्दी की विभीषिका का अच्छा वर्णन है ।

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