कविता

कविता : काश! कोई होता

दबा हुआ है मन में बहुत कुछ
बहुत कुछ कहना चाहते हैं ये लब
फिर कुछ सोचकर चुप हो जाते हैं
कहीं कुछ गलत न कह जायें
कहीं कोई रिश्ता दरक न जाये
कहीं लब खुले तो सैलाब न ले आए
काश ! कोई सुनने वाला होता
इस दिल की वीरानी को
समझता इस खामोशी को
मन में दबे हुए लफ्जों को
आँखों में सूखते अश्कों को
काश ! कोई होता …

*प्रिया वच्छानी

नाम - प्रिया वच्छानी पता - उल्हासनगर , मुंबई सम्प्रति - स्वतंत्र लेखन प्रकाशित पुस्तकें - अपनी-अपनी धरती , अपना-अपना आसमान , अपने-अपने सपने E mail - [email protected]

2 thoughts on “कविता : काश! कोई होता

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी कविता है , सोचता हूँ यह ख़याल यूं कहने को कितने मुश्किल से लगते हैं लेकिन जब इन ही लफ़्ज़ों को कविता की चाशनी लग जाती है तो इन का कुछ मज़ा ही और हो जाता है.

  • लोकेश नदीश

    niceeee

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