कविता

बन्ध केे पार

जीवन समर सेतु में मुझको,
जाने कितने लोग मिलेंगेे।
कुछ की राहें साथ तो होगी,
कुछ छोड़कर निकल चलेंगे।।
—-
रोक रोक कर नियमित करते,
चौराहे चहुओर मिलेंगेे।
कुछ दहिने कुछ बायें भागें,
पर कुछ ही सम राह चलेंगे।।
—-
पथिक दूर नीरव जंगल में,
छांव पेड़ की शीतल होगी।
ठहर शांत करले मन को तू,
मौन शांत मन साथ चलेंगे।।
—-
सेतु बन्ध सुदूर गगन में,
ऊंचार्इयों के पार चलेंगे।
तन को छोड़ धरा पर मितवा,
‘मौन’ बन्ध के पार मिलेंगेे।।

2 thoughts on “बन्ध केे पार

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत खूब कविता है जी .

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता, मौन जी.

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