परछाईं
बस अभी अभी तो आई थी
माँ की परछाईं थी ।
आभा भरी मैं प्रेम की
अनुराग बन सहज सा
आँखों में सपने थे
कलियों सी मुस्काई थी
बस अभी अभी तो आई थी
माँ की परछाईं थी ।
अंछुई मैं ओस जैसी
पांखुरी गुलाब नरम
घटा हूँ मैं श्याम सजल
नेह जल अखियों में लाई थी
बस अभी अभी तो आई थी
माँ की परछाईं थी ।
मृदुल मोम माँ का हृदय
घुल गई मैं आलोक बन
हंस उठे ममता के नयन
मैं माँ को अति भाई थी
– कल्पना मिश्रा बाजपेई
बहुत मधुर कविता !
बहुत शुक्रिया सर