यात्रा …
आज का दिन
कोरे पन्ने सा ..
गया बीत
कविता न पाया ..मैं लिख
सड़क के किनारे
वृक्षों के तले ..
बैठे छावों की देखता ..
रह गया मैं पीठ
दूर से निहारते रह गए मुझे ..
खेतों में बिखरे
सरसों के रंग पीत
पुल ने कहा –
कुछ देर तो रुकों
सुन लो ज़रा ….
बहती हुई नदी का संगीत
जा रहें हो जिसके साथ
तीव्र गति से ..
उन राहों कों ज्ञात नहीं हैं ..
उनकी क्या हैं ….मंजिल
रह रह कर
मन के भीतर
गूंज रहा है
वक्त की कमी के कारण
अधूरा सुना तुम्हारा ..
तुमसे वह गीत
हर मोड़ पर
मील के पत्थर
जब जाते हैं ..मिल
तब ..लगता है
सर्वत्र उस गीत के शब्द हैं अंकित
जिन्दगी की इस यात्रा में अब तक
न जाने छूट गए ..
कितने चौराहें
न जाने कितने परीचित ..
बनगए ..अपरिचित
और कितने ही अजनबी
लगने लगे हैं
कई जन्मों से मेरे मित्र
लेकिन तुम्हें भूल न पाया कभी
हालाकि ..
तुमसे बहुत दूर निकल आया हूँ
आज ऐ मेरे मीत
मेरा मन तुम्हारे पास ही
रह गया हैं …
अभी भ्रमण कर रहा है
सिर्फ मेरा शरीर
जब तक न लौटूं …
मेरी याद कों
तुम भी रखना सुरक्षित
मेरे ह्रदय के द्वार पर तुम्हारी स्मृति के
ऐसे तो जलते ही है
सदैव ……..दीप
कभी कभी
हवा के झोंके से यदि
खुल जाते हैं दरवाजे
तब लगता है
कहीं सुनाने तो नहीं आ गयी हो तुम
अचानक शेष छंद
लिये अपने ओंठों पर
मनमोहक स्मित
kishor kumar khorendra
बहुत अच्छी कविता है .
dhnyvaad
बहुत खूब !
shukriya