श्रमिक
जागा श्रमिक अभाव की चादर पीछे कर
चला अपने भाग्य से लड़ने डट कर
रेशमी बिस्तर में सोने वालो,
तुमने कभी सुबह उठ कर देखा है ?
साहस की ईंटों को चुनता हैं अरमानों के गारे से
फिर भी खुशी चलती है दीवार पर, उसके आगे
संगमरमर के महलों में सुख से रहने वालो,
तुमने उनके भूखे पेटों को कभी देखा है ?
तारों की छांव में रोज सबसे आगे उठता
फिर भी जीवन की अरूणाई ना देख पाता
तरुणाई श्रमिकों की पीने वालो,
इनके सिकुड़े चेहरों को कभी देखा है ?
बीमारों को छोड़ अंधेरे घर में जाते
आटा दाल जुटा के जर-जर वो आते
उम्मीदों से ज्यादा, अपनों को देने वालो,
उनको, उनकी मेहनत भर देकर देखा है?
कभी तो करुणा मन में धारण कर लो
विपदाओं से धुंधले चेहरों का तम हर लो
नहीं सताओ उनको, वो भी हरि के जन हैं,
उनके जीवन का आशय उनसे मत छीनो।
कल्पना मिश्रा बाजपेई
श्रमिकों की व्यथा को प्रकट करने वाली बहुत मार्मिक कविता !
बहुत आभार आप का सादर