कविता

मन का द्वन्द….

टूट जाता है बाँध सब्र और संयम का
जब महसूस होता है तुम्हारा तो कोई भी नहीं
लगने लगता है निष्फल जीवन
क्यूँ और किसके लिए इतनी भागदौड़
फिर लेते हैं जन्म ख्याल उचित, अनुचित
सब छोड़-छाड़ कर इस भीड़-भाड़ से दूर
जाकर कुछ पल शाँति के बिताना चाहे मन
पर इसके लिए भी तो जरुरत है बेपरवाह होने की …..

ये परवाह ही तो रोक लेती है
न जाने कितनी बार अनुचित कदमों को
जो जोश में होश खोकर ले लिया करता है इँसान
विकट और प्रतिकूल परिस्थितियों में अक्सर
फिर परवाह होती है अपनों की उनके सुख-दुख की
मान-सम्मान की और उन चार लोगों की जो हमेशा
कहीं न होते हुये भी दबदबा बनाये हुये होते हैं अपना
कि ” चार लोग सुनेगें देखेगें तो क्या कहेगें ” …
आखिर कौन होते हैं वो चार लोग जो रोक लेते हैं ??? …..

एक क्षण के लिए लगता है कोई भी नहीं तुम्हारा
फिर एक के बाद एक रिश्ता झाँकने लगता है मन की खिड़की से
और अहसास कराता है अपने होने का , अपने प्रेम-विश्वास का
देता है हौसला मन को कि नहीं तुम कहाँ हो अकेले मैं हूँ साथ
इसी को तो कहते हैं माया .. जो दिखती नहीं है पर होती है
इसी को कहते हैं मोह जो छूटता ही नहीं है अंतिम सांस तक
जबतक मोह-माया है रिश्तों में अपनापन है प्रेम है और विश्वास है
जिस दिन ये मोह-माया छूट गयी समझो सफर खत्म जिंदगीं का …..

फिर भी मोह-माया को बुरा क्यूँ मानते हैं
जबकि यही तो जीवन रुपी सफर की प्रेरणा है
जहर उगलते रिश्ते भी फिर क्यूँ रोक लेते हैं
अपने होने का अहसास कराते हैं अपना महत्व जताते हैं
और वो “चार अनदेखे लोग” कहीं न कहीं उठती
नकारात्मकता की चिंगारी पर अपने डर का जल छिड़क देते हैं
और सोच का उफनता दरिया शाँत होने लगता है
चंचल मन की गति ठहरने लगती है उस मोड़ पर आकर
जहाँ से अपनों का संसार दिखने लगता है …….. (प्रवीन मलिक)

प्रवीन मलिक

मैं कोई व्यवसायिक लेखिका नहीं हूँ .. बस लिखना अच्छा लगता है ! इसीलिए जो भी दिल में विचार आता है बस लिख लेती हूँ .....

4 thoughts on “मन का द्वन्द….

  • प्रवीन मलिक

    सादर आभार आप सभी मित्रगण का

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    बहुत अच्छी कविता है.

  • रमेश कुमार सिंह ♌

    सुन्दर अभिव्यक्ति।

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कविता.

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