उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 34)

अध्याय-11: किस किस के हाथों में

गुनहगारों में शामिल हूँ गुनाहों से नहीं वाकिफ
सजा पाने को हाजिर हूँ खुदा जाने खता क्या है?

राजनीति में मेरी रुचि प्रारम्भ से ही रही है। जब मैं गाँव में ही था, जहाँ अखबार भी नियमित नहीं आते, तब भी मेरा राजनैतिक ज्ञान काफी अच्छा था। दुबला-पतला और छोटा होते हुए भी मैं अपने से बड़े और ज्यादा ताकतवर लड़कों के दल का भी नेतृत्व करता था। पिताजी ने मेरा नाम ही ‘नेता’ रख दिया था। लेकिन मेरा यह कार्य गाँव में ही सीमित रहा। आगरा आने पर वहाँ का वातावरण ऐसा नहीं था जैसा गाँव में था। शहर के लड़के मुझे गाँव का समझकर कभी ज्यादा महत्व नहीं देते थे और मैं स्वयं गाँव का होने के कारण शहर वालों को अपने से हीन मानता था। अतः मेरी नेतागीरी आगरा में न चल सकी। मेरा राजनैतिक कार्यकलाप मात्र अखबार पढ़ने, संघ की शाखाओं में जाने तथा चुनावों में जनसंघ, जनता पार्टी और भारतीय जनता पार्टी के लिए छोटे-मोटे कार्य करने तक ही सीमित रहा। वहाँ भी मैं बहुत मामूली कार्यकर्ता माना जाता था। फिर भी मेरा राजनैतिक ज्ञान अपने किसी भी सहपाठी से अधिक था। अपने इसी ज्ञान के बल पर मैं सेंट जाॅह्न्स काॅलेज के दिनों में अपने सहपाठियों में महत्वपूर्ण हो गया था। लेकिन वहाँ भी मेरा राजनैतिक कार्य मात्र बहस करने तक सीमित था। हालांकि जनता पार्टी की जीत और इंदिरा कांग्रेस की हार से मुझे भी बेइंतिहा खुशी हुई थी और मैं कई विजय जुलूसों में भी शामिल हुआ था। छात्र राजनीति में फिर भी मेरा दखल नहीं रहा।

लेकिन जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय का राजनैतिक वातावरण मेरे लिए बहुत अनुकूल साबित हुआ। यहाँ मैं एक बात का उल्लेख कर दूँ। अन्य साधारण छात्रों की तरह मैं यह नहीं मानता था कि राजनीति कोई त्याज्य और गंदी चीज है या छात्रों को राजनीति में भाग नहीं लेना चाहिए। मैं तो मानता था कि राजनीति गंदी नहीं है बल्कि उसमें जाने वाले ज्यादातर लोग गन्दे होते हैं और छात्रों को भी शिक्षित और विचारशील नागरिक या भावी नागरिक होने के नाते राजनीति पर नजर रखनी चाहिए और आवश्यकता होने पर भाग भी लेना चाहिए। जैसा कि महान विचारक और नेता स्व. दीनदयाल जी उपाध्याय ने कहा था- ‘भारत में योग्य छात्र नौकरशाह बन जाते हैं तथा अयोग्य लोग राजनीति में आ जाते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि योग्य तथा ईमानदार छात्र राजनीति आयें तथा इसमें व्याप्त गंदगी को दूर करें।’ मैं दीनदयाल के इन शब्दों से अक्षरशः सहमत था और हूँ। अतः मैं छात्रों के राजनीति में भाग लेने को गलत नहीं मानता।

जिस वर्ष मैंने जवाहरलाल नेहरू वि.वि. में प्रवेश लिया था, वह वर्ष 1980 था। श्रीमती इंदिरा गांधी उसी वर्ष पुनः सत्ता में आयी थीं। अतः वे कांग्रेसी तत्व जो आपातकाल में वि.वि. के सारे गलत कामों के जिम्मेदार थे तथा जो जनता सरकार के दिनों में निष्क्रिय हो गये थे, पुनः सिर उठाने लगे थे। जनता पार्टी छिन्न-भिन्न हो गयी थी तथा देश का विपक्ष बहुत हताश हो गया था। लेकिन हमारे वि.वि. में सदा की तरह छात्रों में जोश मौजूद था।

जैसा कि मैं बता चुका हूँ हमारे वि.वि. की छात्र राजनीति में मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के छात्र संगठन एस.एफ.आई. का वर्चस्व था। अन्य छात्र संगठन घोर एस.एफ.आई. विरोधी थे। उस वर्ष छात्र संघ के अध्यक्ष पद के लिए एक प्रसिद्ध छात्र नेता राजन जी. जेम्स तथा एस.एफ.आई. के उम्मीदवार विजय भास्कर के बीच बहुत कड़ा मुकाबला हुआ। जेम्स को अधिकतर छात्र संगठनों तथा स्वतंत्र छात्रों का भी समर्थन प्राप्त था। लेकिन वे एक कड़े मुकाबले में बहुत कम वोटों से भास्कर से हार गये। अन्य सभी मुकाबलों में भी एस.एफ.आई. भारी पड़ी।

हम यद्यपि घोर कम्यूनिस्ट विरोधी थे और हर स्तर पर एस.एफ.आई. का विरोध करते थे। लेकिन सरकार, कांग्रेस और विशेषकर इन्दिरा परिवार के खिलाफ हम सब एक हो जाते थे। एक बार इन्दिरा गांधी का हमारे कैम्पस में आगमन हुआ था। हालांकि उनका कार्यक्रम काफी गुप्त रखा गया था और बहुत कड़ी सुरक्षा व्यवस्था थी, लेकिन उनके आने से कई दिन पहले छात्रों को इस बात की जानकारी हो गयी। यह शायद मार्च, 1981 के आसपास की बात है। मेरा ज.ने.वि. में वह पहला ही वर्ष था, लेकिन तब तक मैं काफी सक्रिय हो गया था और वि.वि. की छात्र राजनीति में अपनी पहचान बना ली थी।

इन्दिरा गांधी के आगमन के कार्यक्रम का पता चलते ही छात्र हरकत में आ गये। आपातकाल के काले दिनों में इन्दिरा की सरकार ने हमारे वि.वि. के कई छात्रों पर जुल्म ढाये थे। सैकड़ों छात्रों को रात ही रात में होस्टलों से पकड़ कर गिरफ्तार कर लिया गया था तथा कई को वि.वि. से निष्कासित कर दिया गया था। इन सब जुल्मों के विरोध में प्रदर्शन करने का छात्रों को यह बहुत सुनहरा मौका हाथ लगा था। सारे छात्र संगठनों ने सम्मिलित मीटिंग छात्रसंघ के तत्वावधान में की और यह तय किया कि इन्दिरा गांधी के सारे कार्यक्रमों का पूर्ण बहिष्कार किया जायेगा तथा उनके विरुद्ध शान्तिपूर्ण प्रदर्शन किया जायेगा। उस दिन छात्रों का जोश देखने लायक था। जिस दिन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी पधारीं उस दिन सारे कैम्पस में पुलिस ही पुलिस थी। कदम कदम पर छात्रों की तलाशी ली जा रही थी। हमारे वि.वि. के सारे छात्र प्रदर्शन के लिए तैयार खड़े थे। तभी कांग्रेस के छात्र संगठन से संबंधित दिल्ली विश्वविद्यालय के कुछ छात्रों ने हंगामा करने का प्रयत्न किया ताकि हम सब में फूट पड़ जाये लेकिन उनकी दाल नहीं गली।

जिस पंडाल में श्रीमती गांधी पधारने वाली थीं, उसके चारों ओर 100 मीटर दूर तक खम्भे गाढ़कर बाड़ लगा दी गयी थी ताकि छात्र अन्दर आने की कोशिश न करें और उस पर लाठीधारी पुलिस भी भारी संख्या में मौजूद थी। गिने चुने छात्रों को तलाशी देने पर तथा आइडेंटिटी कार्ड दिखाने पर ही अन्दर जाने दिया जा रहा था। अन्दर पंडाल में आगे की अधिकांश कुर्सियों पर सुरक्षा अधिकारी सादी वर्दी में बैठे हुए थे। उसके पीछे अध्यापकों के लिए कुर्सियाँ थी और सुरक्षा अधिकारियों ने कोशिश की थी कि अन्दर आने वाले छात्र यथासंभव सबसे पीछे की कुर्सियों पर ही बैठें। लेकिन कई छात्र उनकी नजर बचाकर अध्यापकों के बीच बैठ जाने में सफल हो गये।

इन्दिरा गांधी के आने पर छात्रों का जोश कई गुना हो गया। जोर-जोर से इन्दिरा के विरोध में नारे लगने लगे। छात्राओं का जोश भी आसमान छू रहा था और नारे लगाने में वे भी पीछे नहीं थीं। कई बार छात्रों ने पुलिस का घेरा तोड़कर पंडाल की तरफ भागने की कोशिश की लेकिन वे कुछ मीटर से ज्यादा नहीं जा पाये। लाठीधारी जवान किसी भी छात्र के जरा भी कोशिश करने पर बेरहमी से लाठियाँ बरसाते थे। छात्रों के नारों की आवाज अन्दर पंडाल में इतनी जोर-जोर से सुनी जा रही थी कि कार्यवाही चलाना मुश्किल हो रहा था। फिर भी किसी तरह तेज आवाज वाले लाउडस्पीकरों के सहारे कार्यवाही चलायी जा रही थी। उप कुलपति आदि के बोलने तक पंडाल के अन्दर ज्यादातर शान्ति बनी रही।

लेकिन जैसे ही इन्दिरा गांधी बोलने को खड़ी हुईं, पंडाल के अन्दर बैठे हुए छात्रों का रोष और घृणा उभर कर सामने आ गयी। हर एक-दो मिनट पर कोई छात्र अपनी सीट पर ‘शर्म-शर्म’ और ‘मुर्दाबाद’ के नारे लगाता हुआ उठ खड़ा होता और बगल में ही कहीं सादे कपड़ों में बैठा कोई सुरक्षा अधिकारी उसका मुँह बंद करके उसे उठाकर बाहर ले जाता और कैदियों को ढोने वाली गाड़ी में बन्द कर देता। एक-एक करके 24 छात्रों ने इस तरह अपनी गिरफ्तारी दी। इन्दिरा गाँधी को इससे कितनी झुँझलाहट हुई होगी, बताने की आवश्यकता नहीं। वे अपने भाषणों में नेहरू परिवार की ‘सेवाओं’ का गुणगान कर रही थीं और देश की ‘लोकतांत्रिक परम्पराओं’ की चर्चा कर रही थीं। कितनी बिडम्बना थी कि उसी समय पंडाल के बाहर उनका ‘लोकतंत्र’ छात्रों पर बेरहमी से लाठियाँ बरसा रहा था।

छात्रों का प्रदर्शन और पुलिस का लाठी चार्ज तीन घंटे तक जारी रहा और तभी बंद हुआ जब इन्दिरा गाँधी वहाँ से प्रस्थान कर गयीं। उनके जाने के बाद उसी पंडाल में छात्रों की विशाल सभा हुई, जिसमें कर्मचारी संगठनों के नेता भी शामिल हुए। उस दिन का हमारा प्रदर्शन इतना जबर्दस्त रहा कि अगले दिन समाचार पत्रों में इन्दिरा गाँधी के भाषण के बजाय छात्रों के प्रदर्शन को ही प्रमुखता देकर छापा गया था, जो एक विलक्षण बात थी। वह दिन छात्र राजनीति के इतिहास का एक स्वर्णिम दिन माना जाएगा।

उसी वर्ष छात्रों ने किसी बात पर हड़ताल की, जो इतनी सफल रही कि उप कुलपति को बाध्य होकर वि.वि. अनिश्चितकाल के लिए बंद कर देना पड़ा। सारे छात्रों को होस्टल खाली करने का भी आदेश हुआ, जो निष्प्रभावी रहा। वि.वि. को अनिश्चितकाल के लिए बन्द करना बहुत अन्यायपूर्ण था। अतः छात्रों ने इसके विरोध में बोट क्लब पर प्रदर्शन करना तय किया। डी.टी.सी. की बसों में भरकर हजारों छात्र कनाट प्लेस में प्लाजा नामक स्थान पर पहुंचे जहाँ से अनुशासित जुलूस के रूप में बोट क्लब तक गये और वहाँ देर तक प्रदर्शन किया। इस जुलूस में कई बातें हमारे विश्वविद्यालय के इतिहास में अभूतपूर्व रहीं। पहली बार सभी छात्रों ने छात्रसंघ के झंडे तले एकत्रित होकर प्रदर्शन में भाग लिया और किसी अन्य छात्र संगठन का कोई बैनर नहीं था। संसद भवन में भी हमारे वि.वि. के बारे में कई प्रश्न उठाये गये, लेकिन उसका कोई फल न निकला। लगभग तीन माह बाद ही विश्वविद्यालय खुल सका था।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

5 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 34)

  • बहुत बहुत आभार मान्यवर !

  • Man Mohan Kumar Arya

    विश्वविद्यालय में घटित।घटनाओ को पढ़कर उस समय के वातावरण का परिचय मिला। इसमें आपकी सक्रियता से आपके व्यक्तित्व के बहुआयामी होने का पता चलता है। आपके यह संस्मरण इतिहास के दस्तावेज़ हैं। आपको धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत आभार, मान्यवर !

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद किशोर जी

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