कविता

राह

 

सूरज चढ़ता था और उतरता था….
चाँद चढ़ता था और उतरता था….
जिंदगी कहीं भी रुक नही पा रही थी,
वक्त के निशान पीछे छुठे जा रहे थे,
लेकिन मैं वहीं खड़ा था….
जहाँ तुमने मुझे छोडा था….
बहुत बरस हुए, तुझे; मुझे भुलाए हुये !

मेरे घर का कुछ हिस्सा अब ढ़ह गया है !!
मुहल्ले के बच्चे अब जवान हो गए है,
बरगद का वह पेड़,जिस पर तेरा मेरा नाम लिखा था
शहर वालों ने काट दिया है !!!

जिनके साथ मैं जिया, वह मर चुके है
मैं भी चंद रोजों में मरने वाला हूं
पर,
मेरे दिल का घोंसला, जो तेरे लिए मैंने बनाया था,
अब भी तेरी राह देखता है…..

4 thoughts on “राह

  • विजय कुमार सिंघल

    सुन्दर प्रेम कविता ! वाह !!

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    यह मीठी यादें कभी भूलती नहीं . कविता अच्छी लगी .

  • रमेश कुमार सिंह ♌

    बहुत सुन्दर

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