गरीब माँ
उसकी हाथों की लकीरे मिटती गई,
लोगो के झूठे बर्तन मांज मांज कर,
उसकी छाती पे धूल जमती रही,
लोगो के गंदे घर बुहार बुहार कर,
धोती रही घर घर जाकर मैले कपड़े ,
सर्दियों में होकर गीली ठिठुर ठिठुर कर,
कभी आराम नहीं किया —
जिस से चलता रहे उसका घर ,
पुराने चीथड़ों में भी करती रही गुज़ारा –
यह सोच सोच कर की मेरे बच्चे,
अच्छा पहने, अच्छा खाएं ,
और अच्छी तालीम पाएं–
समय गुजरता गया– ,
बच्चे पढ़ लिख गए,
बड़े हुए, अपने पैरों पर खड़े हुए,
अच्छी नौकरी में लग गए,
ऐशो आराम की ज़िंदगी बिताने लगे,
पर वह गरीब माँ ,
उसकी हाथों की लकीरे मिट गई,
माँ के इस त्याग से ,
बच्चो की किस्मत की लकीरे भी बदल गई,
और यह क़्या —
उनके दिल भी बदल गये….
वह गरीब माँ-
आज भी घर घर जाकर
लोगो के झूठे बर्तन मांजती है,
अपना पेट पालने के लिए.
— जय प्रकाश भाटिया
24/01/2015
मन में दर्द सा महसूस हुआ , कैसे कैसे लोग हैं इस धरती पर .