आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 35)
उस वर्ष असम आन्दोलन जोर-शोर से शुरू हो गया था। हमारी सहानुभूति स्वाभाविक रूप से आन्दोलनकारियों के साथ थी, क्योंकि वे किसी धर्म विशेष के व्यक्तियों के बजाय विदेशियों के खिलाफ थे। इस आन्दोलन के समर्थन और विरोध में छात्रों के अलग-अलग गुट बन गये थे। आन्दोलन के विरोधी गुट में एस.एफ.आई, ए.आई.एस.एफ तथा कुछ कांग्रेसी थे, तो दूसरे ग्रुप में बाकी सब शामिल थे जिनमें प्रमुख थे विद्यार्थी परिषद, युवा जनता, युवा लोकदल, समता युवजन सभा तथा कुछ चीन-परस्त नक्सलवादियों के संगठन।
यहाँ पर यह बता देना आवश्यक है कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में चीन समर्थक छात्रों की एक बड़ी संख्या थी जो एक ओर तो अमेरिका जैसे पश्चिमी राष्ट्रों तो दूसरी ओर रूस के भी कट्टर विरोधी थे। उनका आदर्श चीन और विशेषकर माओ था। एस.एफ.आई. का विरोध करने में बे सबसे आगे रहते थे, लेकिन चुनावों में कभी सफल नहीं हो पाते थे। उनके कई गुट थे जो विभिन्न नक्सलपंथी नेताओं में विश्वास रखते थे। लेकिन व्यक्तिगत रूप से वे बहुत अच्छे, विचारशील और सुसंस्कृत थे। ऐसे कई छात्रों के साथ मेरा अच्छा परिचय और मैत्री थी। श्री एस. कृष्णा राव भी उन्हीं में से एक थे।
असम आन्दोलन को उनका पूर्ण समर्थन था और इसकी सहानुभूति में चलाये गये छात्र आन्दोलनों में उन्हें विद्यार्थी परिषद के सहयोग पर भी कोई आपत्ति नहीं थी। कई बार हमने साथ-साथ जुलूस निकाले थे तथा सम्मेलन किये थे। एक बार तो हमने मशाल जुलूस निकाला था, जो कि जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के इतिहास में पहला मशाल जुलूस था, जो बाहर की बस्तियों में भी गया। उसमें करीब 300-400 लोग शामिल थे और हम करीब 2 घंटे बाद ही वापस आ सके थे।
उन्हीं दिनों मैं पहली बार गिरफ्तार भी हुआ था। मामला यह था कि स्वामी अग्निवेश, जो असम के समर्थन में आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे थे, ने एक बार अनशन किया था, जो करीब 15 दिन तक चला। 15 दिनों में वे बहुत कमजोर हो गये थे तथा देशभर में उनके बारे में चिन्ताएँ की जा रही थीं। तब असम आन्दोलन के नेताओं के आग्रह पर उन्होंने अनशन तोड़ना स्वीकार कर लिया था। इसी अवसर पर हमारी योजना बोट क्लब में प्रदर्शन करके स्वयं को गिरफ्तार कराने की थी। योजनानुसार स्वामी जी ने अनशन तोड़ा और फिर वहीं सड़क पर सभा की। सभा पूरी होने तक पुलिस ने कई बसें लाकर खड़ी कर दी थीं, जिनमें भर कर हम सबको संसद मार्ग स्थित थाने ले जाया गया। वहाँ हमें दो घंटे तक बैठाये रखा गया। इस बीच हमें चाय तक नहीं पिलायी गयी। अतः कुछ लड़के बाहर जाकर पूड़ी तथा साग खरीद कर लाये, जिन्हें सबने थोड़ा-थोड़ा खाकर भूख मिटायी। शाम को चार बजे हमें छुट्टी मिली तो हम वापस जे.एन.यू. आ गये। वह गिरफ्तारी मेरे लिए पिकनिक से ज्यादा नहीं थी। मुझे काफी आनन्द भी आया। वहाँ मैंने अपना सही नाम लिखाया था। लेकिन बाद में एक-दो लड़कों ने बताया कि ऐसी जगह सही नाम-पता नहीं बताया जाता। यह बात मैंने याद रखी।
उन दिनों रोज ही कोई न कोई जुलूस, सभा, सम्मेलन, प्रदर्शन आदि होता रहता था जिनमें मैं भाग लेता था। इस सब कार्यों में मेरी पढ़ाई-लिखाई चलने का सवाल ही नहीं था और मेरा पाँचवा सेमिस्टर आ गया था। अब तक मेरे गले के टान्सिल पूरी तरह ठीक हो गये थे तथा योगासन आदि नियमित करने से मेरा स्वास्थ्य भी पहले से बेहतर था।
तभी एक दिन मुझे पता चला कि एम.फिल. की डिजर्टेशन लिखने के लिए ज्यादा से ज्यादा पाँच सेमिस्टर मिल सकते हैं उसके बाद वे एम.फिल. की डिजर्टेशन स्वीकार नहीं करेंगे तथा मुझे सीधे पीएच.डी. करनी पड़ेगी। पीएच.डी. में कम से कम 5 साल लगते और मैं उतने समय तक इन्तजार करने को तैयार नहीं था। पाँचवा सेमिस्टर पूरा होने में केवल तीन महीने बाकी थे। अतः मेरे सामने केवल दो विकल्प थे। पहला तो यह कि मैं तीन महीने जमकर मेहनत करके डिजर्टेशन पूरी करके जमा कर दूँ तथा दूसरा यह था कि एम.फिल. करने का विचार छोड़कर मैं सीधे पीएच.डी. कर लूँ। मेरे कई मित्रों ने तीन महीने में डिजर्टेशन लिखकर जमा करना असंभव जानकर मुझे दूसरा विकल्प चुनने की ही राय दी। इनमें श्री हवा सिंह भी थे। लेकिन मैं स्वयं पहले विकल्प के पक्ष में था। अतः मैंने एक दिन रात भर सोचकर यह तय किया कि अब राजनैतिक गतिविधियों को कम करके पूरा ध्यान डिजर्टेशन लिखने पर लगाऊँगा।
यह मेरे स्वभाव की एक विशेषता रही है, उसे आप अवगुण भी कह सकते हैं, कि मैं जिस काम में लग जाता हूँ, उसमें स्वयं को पूरी तरह समर्पित कर देता हूँ। कोई काम अधूरे मन से करना मुझे पसन्द नहीं। इसमें मेरे मूड का भी हाथ रहता है। यदि मेरा मूड ठीक होता है तो मैं लगातार कई घंटे तक बिना थके कार्य कर सकता हूँ और यदि मूड नहीं होता तो एक मिनट भी नहीं कर पाता। मूड ठीक न होने पर या थक जाने पर मैं कोई पत्रिका या उपन्यास लेकर पढ़ने के लिए लेट जाता हूँ, चाहे वह किताब मैंने पहले पढ़ी हुई हो। लेट कर पढ़ने से मेरी आंखों पर खराब असर तो पड़ता है, लेकिन थकावट पूरी तरह मिट जाती है और मेरा दिमाग भी तरोताजा हो जाता है। इससे मेरा मूड ठीक हो जाता है और मैं फिर काम शुरू कर सकता हूँ।
यही तरीका अपनाते हुए मैंने एम.फिल. की डिजर्टेशन लिखना शुरू किया। प्रातः नहा-धोकर और जलपान करके मैं अपने कमरे में ही लिखने बैठ जाता था, जो दोपहर के खाने का समय होने तक चलता था। खाना खाने के बाद मैं लेटकर पत्रिकाएँ पढ़ते हुए कुछ आराम करता था। फिर तीसरे पहर मैं अपने सेंटर के कम्प्यूटर पर काम करने जाता था। वहाँ से मैं शाम को 6-7 बजे लौटता था तथा एक कप चाय पीकर होस्टल के बाहर लान में बैठकर आराम करता था। रात को खाना खाने के बाद मैं पुनः लिखना शुरू कर देता था, जो लगभग 10 बजे तक चलता रहता था।
उन दिनों का मेरा दैनिक क्रम यही था। मेरी राजनैतिक गतिविधियाँ प्रायः बन्द थीं, लेकिन अति आवश्यक होने पर मैं लिखना स्थगित करके राजनैतिक गतिविधियों में भी शामिल हो जाता था। परन्तु मैं इस बात का ध्यान रखता था कि डिजर्टेशन की प्रगति ठीक रहे ताकि काम समय पर पूरा हो जाये। किसी विद्वान् ने कहा है कि हजारों मील की यात्रा पहले कदम के साथ शुरू हो जाती है। इस कथन की सत्यता का अनुभव मैंने अपने जीवन में पहली बार किया। देखते-देखते मेरी डिजर्टेशन के अध्याय पर अध्याय पूरे होते चले गये। बीच-बीच में काफी मुश्किलें भी आयीं और मुझे कई किताबें चाटनी पड़ीं। कई अध्याय के अध्याय लिख कर काटने पड़े। लेकिन अन्त में दो महीने के अन्दर ही मेरी डिजर्टेशन पूरी हो गयी।
मेरे इस कार्य से मेरे गाइड डा. सदानन्द को तो आश्चर्य हुआ ही, मेरे दोस्तों जैसे सर्वश्री रामनरेश सिंह, हवा सिंह, वी.एस.पी. श्रीवास्तव आदि को भी भारी आश्चर्य हुआ। ये अब तक यही मानते थे कि मैं पढ़ने में चाहे कितना ही तेज हूँ, लेकिन ऐसी मेहनत का काम करना मेरे लिए असंभव ही है और यह कि मैं राजनीति के सिवा कुछ नहीं कर सकता। लेकिन कहावत है कि ईश्वर उनकी ही सहायता करता है जो अपनी सहायता आप करते हैं। इन दिनों भारी मेहनत से मेरे स्वास्थ पर थोड़ा असर तो पड़ा, लेकिन कुल मिलाकर मैं काफी चुस्त था। योगासनों ने इसमें भारी मदद की थी।
डिजर्टेशन पूरी होने के बाद, सबसे पहले मेरे गाइड डा. सदानन्द ने मेरी डिजर्टेशन में कई सुधार किये और कई सुझाव भी दिये। उन सबको ध्यान में रखकर मैंने डिजर्टेशन की अन्तिम प्रति तैयार की। इसमें लगभग दो सप्ताह और लग गये। अब केवल दो सप्ताह बाकी थे और मुझे डिजर्टेशन 5 जनवरी 1983 तक जमा कर देनी थी। उस समय तक प्रो. बनर्जी हमारे डीन हो गये थे। उन्होंने कहा भी कि डिजर्टेशन जमा करने में 10-15 दिन इधर-उधर होने का कोई अर्थ नहीं है। लेकिन मैंने तो 5 जनवरी 1983 से पहले ही डिजर्टेशन जमा करने की प्रतिज्ञा कर रखी थी, अतः मैंने उनकी उदारता का लाभ न उठाने का निश्चय किया।
मेरे सौभाग्य से मुझे डिजर्टेशन टाइप कराने के लिए ज्यादा दौड़ धूप नहीं करनी पड़ी। उसी वि.वि. में एक क्लर्क तथा मेरे मित्र श्री सुरेश कुमार सप्रा ने उन्हीं दिनों एक नया टाइप राइटर खरीदा था, जिसका उन्होंने तब तक प्रयोग भी नहीं किया था। अतः मैंने उनसे ही डिजर्टेशन टाइप कराने का निश्चय किया। उन्होंने तीन दिन की छुट्टी इसी कार्य के लिए ली और हम दोनों ने साथ बैठकर तीन दिन में ही सारी डिजर्टेशन टाइप कर ली। श्री सप्रा ने काफी मेहनत की थी और मैं भी लगातार पास बैठा हुआ सुझाव देता रहता था। उन दिनों श्री सप्रा की श्रीमतीजी तथा बच्चे बाहर गये हुए थे अतः उनका घर भी खाली मिल गया था।
डिजर्टेशन टाइप कराने के बाद मैंने आवश्यक चित्र आदि तैयार किये और उनको जिल्द बांधने के लिए तैयार कर लिया। जिल्द बनवाने में एक बार फिर श्री सप्रा ने मदद की और दो-चार दिनों में ही मेरी डिजर्टेशन की पांच प्रतियाँ जमा करने के लिए तैयार हो गयीं। अपने गाइड डा. सदानन्द और डीन प्रो. बनर्जी के हस्ताक्षर लेने के बाद मैंने डिजर्टेशन जमा कर दी। उस दिन तारीख थी 31 दिसम्बर 1982 अर्थात् मैंने अपना लक्ष्य 5 दिन पहले ही प्राप्त कर लिया था। उस दिन मुझे जो प्रसन्नता हुई वह शब्दों में व्यक्त नहीं की जा सकती। उसे केवल तभी अनुभव किया जा सकता है जब किसी को कठिन परिश्रम के बाद फल की प्राप्ति होती है। मैं एक बहुत बड़ा बोझ अपने सिर से उतरा हुआ महसूस कर रहा था।
(जारी…)
नमस्ते विजयजी, आत्मकथा का विवरण पढ़ा जिससे आपकी अध्ययनशीलता वा पुरुषार्थ के गुणों का पता चला। आपने डेजर्टेशन अल्पावधि में तैयार कर पुरुषार्थ से लक्ष्य प्राप्ति का प्रेरणादायक उदहारण प्रस्तुत किया है। मुझे ‘उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न च मनोरथः’ पंक्तिया स्मरण हो आयी। इस कड़ी में प्रेरणादायक संस्मरणों के प्रकाशन के लिए धन्यवाद।
प्रणाम मान्यवर ! आपके उद्गारों के लिए हार्दिक आभारी हूँ.
विजय जी आप राजनीती मैं काफी सक्रिय थे अपने विद्यार्थी जीवन में…..आजकल भी क्या आप सक्रिय हैं ?
भाई जी, मैं बैंक अधिकारी के नाते सरकारी सेवा में हूँ. इसलिए राजनीति में सक्रिय भाग लेने का अधिकार मुझे नहीं है. लेकिन एक सजग नागरिक के नाते मैं राजनीति में बहुत रुचि रखता हूँ और राष्ट्रवादी विचारधारा वाली राजनैतिक पार्टी का समर्थन करता हूँ. सक्रिय राजनीति में मैं भाग नहीं लेता और न किसी राजनीतिक दल का सदस्य हूँ. आपको धन्यवाद.
बहुत खुबसूरत लिखा भैया आपने _/_
नमस्ते, बहिन जी. आभार ! इसका पूरा आनंद लेने के लिए शुरू से पढ़िए. इसके लिंक इसी वेबसाइट पर ‘उपन्यास’ शीर्षक के अंतर्गत मिल जायेंगे और मेरे नाम की रचनाओं की सूची में भी है. अब तो यह समापन की ओर है.