मेरे ह्रदय की सात्विक भावना “
तुम जितना करती हो
मेरे काव्य की सराहना
उतनी ही ज्यादा पवित्र हो जाती है
मेरे ह्रदय की सात्विक भावना
न तुम्हारे सुघड़ तन की ,
न ही मेरे कलुषित मन की
मुझे स्मृति अब रहती है
तुम्हारी रूह से मेरी रूह का
हो गया हैं ..जब से सामना
विरह से ही हुआ था आरम्भ
विरह मे ही होगा अंत
प्रेम में मिलन की ….
कहाँ है संभावना
तुम्हारी सुनहरी यादों की लौ को धारण किये
दीपक सा निरंतर जलता रहूँगा
तुम्हारे वियोग के ख्याल में निमग्न
अगरबत्तियों सा सुलगता रहूंगा
आकर सपनों में मुझे जो इन्द्रधनुष सौप गयी हो
उसके सातो रंगों को लिए फूलों सा खिलता रहूंगा
तुम्हारे सम्मुख बस यही है
मेरे मन की सच्ची मनोकामना
तुम साकार हो या निराकार हो
इस बात से मेरा कोई सरोकार नहीं हें
प्रेम के अतिरिक्त भला और क्या था मुझे जानना
न साध्य है ,न साधन है ….
न शेष रह गयी है कोई साधना
करता हूँ सिर्फ तुम्हारी ही आराधना
तुम जितना करती हो
मेरे काव्य की सराहना
उतनी ही ज्यादा पवित्र हो जाती है
मेरे ह्रदय की सात्विक भावना
— किशोर कुमार खोरेन्द्र
बहुत खूब !
thank u vijay ji
वाह वाह , किया खूबसूरत है.
shukriya gurmel ji