महर्षि दयानन्द के दो अधूरे स्वप्न
महर्षि दयानन्द ईश्वरीय ज्ञान – चार वेदों के उच्च कोटि के विद्वान थे। वह योग के ज्ञाता व असम्प्रज्ञात समाधि के सिद्ध योगी थे। उन्होंने देश के विभाजन से पूर्व देश के अधिकांश भाग का भ्रमण कर मनुष्यों की धार्मिक, सामाजिक तथा अन्य सभी समस्याओं को जाना व समझा था। उनके समय जितने भी देशी व विदेशी मत-मतान्तर थे, उनके स्वरूप व उनकी उत्पत्ति की परिस्थितियों पर विचार कर, मनुष्य व प्राणीमात्र के हित को सम्मुख रखकर एक वैज्ञानिक व शोध छात्र की भांति उन्होंने उन्हें जाना भी था व समझा था। सब मतों का अध्ययन करने व वेद ज्ञान पर अधिकार प्राप्त करने के बाद वह इस निष्कर्ष पर पहुंचे थे कि संसार में सभी मत-मतान्तरों की प्राचीन व अर्वाचीन पुस्तकों में पूर्ण सत्य व प्रामाणिक ज्ञान केवल वेदों में ही है। वेदों में सत्य व पूर्ण ज्ञान यथा आघ्यात्मिक, सामाजिक व भौतिक ज्ञान आदि विस्तृत रूप में होने के कारण ही उन्होंने वेदों को स्वीकार किया, उन्हें स्वतः प्रमाण का दर्जा दिया और उनका प्रचार किया। उनके प्रचार का उद्देश्य अन्यों की तरह कोई धर्म प्रवर्तक, अवतार या महन्त आदि बनने का नहीं था अपितु मनुष्य जाति का कल्याण ही उनका उद़्देश्य था। इसी कारण उन्होंने अपने उद्देश्य से जुड़ी हुई कुछ बातों पर प्रकाश डाला है जिससे कि भ्रान्ति न हो। उन्होंने आध्यात्मिक, सामाजिक व व्यवहारिक जीवन विषयक अपने सत्य ज्ञान के प्रचार के आन्दोलन का एक नियम ही यह बनाया कि सत्य के ग्रहण और असत्य को छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिये। मनुष्य को अपना प्रत्येक कार्य सत्य और असत्य को विचार करके करना चाहिये। जो सत्य है, उसे स्वयं मानना व अन्यों से मनवाना मुझे अभीष्ट है। यही वेद सम्मत मनुष्य धर्म है। उनके लिए सत्य वह है जो प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाणों से सत्य सिद्ध हो तथा जिससे सभी मनुष्यों को समान रुप से लाभ हो व हानि किसी भी प्रकार से किसी की न हो। इसी कारण उन्होंने ईश्वर के पुराणों में वर्णित अलंकारिक व अविश्वसनीय स्वरूप को स्वीकार नहीं किया और ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप का अनुसंधान करते रहे।
ईश्वर व जीवात्मा को उन्होंने वेद और वैदिक साहित्य को पढ़कर जाना था और योग के अभ्यास से समाधि की अवस्था में ईश्वर व जीवात्मा के सत्य स्वरूप का प्रत्यक्ष वा साक्षात्कार करके उसे प्राप्त किया था। जीवात्मा के विषय में भी उन्होंने सभी मतों, सम्प्रदाय व मजहबों में वर्णित स्वरूप का अध्ययन किया, उसे पूरी तरह से जाना व समझा तथा उसे सत्य की कसौटी व नयाय दर्शन के आठ प्रमाणों पर परखा और अपनी खोज पूरी करने पर सभी प्रमाणों पर सत्य सिद्ध हुए आत्मा के स्वरूप को ही स्वीकार किया। वह ईश्वर व जीवात्मा आदि का सब प्रकार से सत्य ज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद मौन व निष्क्रिय नहीं रहे अपितु अपने प्राणों व सुखों की चिन्ता किए बिना मनुष्य जाति के कल्याणार्थ इनका प्रचार करने के लिए उद्यत हुए जिसका परिणाम है कि आज हम जैसे साधारण हिन्दी पठित अध्येता अनुभव करते हैं कि हम ईश्वर, जीव व प्रकृति के यथार्थ स्वरूप को अपने बड़े-बड़े धर्माचार्यों के समान व यथार्थ रूप में जानते हैं। उनके द्वारा अनुसंधान कर प्राप्त किया गया ईश्वर का संक्षिप्त स्वरूप है – ‘सत्य, चित्त, आनन्दयुक्त, निराकार, सर्वशक्तिमान, न्यायकारी, पक्षपातरहित, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र, सृष्टिकत्र्ता तथा सभी मनुष्यों के लिए प्रतिदिन उपासनीय।’ इसी प्रकार जीव का संक्षिप्त स्वरूप है – ‘सत्य, चेतन, आनन्द रहित, अल्पज्ञ, सूक्ष्माकार बिन्दूवत, अल्प शक्तिमान, ज्ञानेच्छु व कर्मशील, अपने शुद्ध स्वरूप में न्याय करने वाला, पक्षपात रहित, दयालु, अजन्मा, अनन्त, अमर, मूल स्वरूप में विकारों से रहित परन्तु सत्व, रज व तम गुणों के प्रभाव से कुछ अवगुणों व विकारयुक्त प्रवृत्तियों को धारण करने वाला और सत्य को जानकर व ग्रहण कर दुगुर्णों, दुव्र्यसनों व दुःखों से मुक्त होने वाला, अनादि, ईश्वर जीवात्मा का आधार है, ईश्वर से विद्यादि धन व ऐश्वर्य की प्राप्ति करने वाला, ईश्वर से व्याप्य, एकदेशी, ससीम, अजर, अज्ञानावस्था में भयभीत होना, नित्य तथा अविद्या आदि से मुक्त होने पर पवित्र अवस्था को प्राप्त, कर्मों का कर्ता व उसके फलों का ईश्वर की व्यवस्था से भोगकत्र्ता है आदि।’ यह जीवात्मा का स्वरूप है जिसे उन्होंने सत्य के अनुसंधान से प्राप्त किया और अपने प्रवचनों, लेखों व पुस्तकों आदि के द्वारा इसका प्रचार किया। इसी प्रकार से प्रकृति का स्वरूप भी उनके सत्यार्थ प्रकाश आदि ग्रन्थ, वेद भाष्य, 6 दर्शन व उपनिषदादि ग्रन्थों के अध्ययन से जाना जा सकता है।
हम यह लेख महर्षि दयानन्द अनेकानेक स्वप्नों में से दो स्वप्नों की चर्चा करने के लिए लिख रहे हैं। पहला यह कि उनके अनुभव व खोज का परिणाम यह निकला कि संसार में जो भिन्न-भिन्न मत हैं यह सब मनुष्यों के सुखों के पूरी तरह साधक नहीं, अपितु बाधक भी हैं। वेदों से इतर सभी मतों में अज्ञान भरा हुआ है जिसके कारण मनुष्यों को संसार में अनेक दुःख प्राप्त होते हैं। उनके अनुसार संसार में ईश्वर की केवल एक ही सत्ता है व सभी मतों, पन्थों व सम्प्रदायों में जिस ईश्वर का उल्लेख है, वह अलग-अलग न होकर एक ही सत्ता के भिन्न-भिन्न भाषाओं के शब्दों में वर्णन है। वह यह अनुभव करते थे कि सभी मतों के धर्माचायों को परस्पर प्रीतिपूर्वक एक साथ मिल कर सत्य मत व धर्म का अनुसंधान करना चाहिये और उस सत्य मत को संसार के सभी लोगों को मानना व उसका आचरण करना चाहिये। इसके लिए उन्होंने प्रयास भी किये थे परन्तुं अन्य मतों के धर्माचायों से सहयोग न मिलने के कारण वह इसमें सफल नहीं हो सके। उनका यह कार्य आज भी अधूरा है। यह तथ्य है कि सृष्टि के आरम्भ से महाभारत काल तक के 1.96 अरब वर्षों तक वेदों पर आधारित केवल एक ही सत्य मत सारे संसार में प्रचलित रहा है जिसका आचरण कर संसार में कहीं अधिक सुख व शान्ति रही है। उस काल में वह समस्यायें नहीं थी जैसी आजकल मत-मतान्तरों द्वारा उत्पन्न समस्यायें हैं। इस विवाद रहित व सर्वमान्य सिद्धान्तों वाले मत वा धर्म, जो कि वर्तमान में वैदिक धर्म है, के लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए निरन्तर प्रयास होने चाहिये। इस लक्ष्य के प्राप्त न होने का एक कारण हमें वेदों के मानने वाले आर्य समाज के प्रचार की शिथिलता भी दृष्टिगोचर होती है।
ऋषि दयानन्द के इस स्वप्न को पूरा करने के लिए जितने पुरुषार्थ व प्रयासों की आज आवश्यक है, उस कार्य में उनके अनुयायी बहुत पीछे हैं। यह भी कह सकते है कि अनके अनुयायी संगठित होकर पूरे आत्म विश्वास व शक्ति से प्रचार नहीं कर पा रहे हैं जिससे संसार में ईश्वर, जीवात्मा, मनुष्यों के कर्तव्य व व्यवहार विषयक अज्ञान, अन्धविश्वास, पाखण्ड, धर्मपरिवर्तन जैसी प्रवृत्तियां विद्यमान हैं। कुछ मतों की राजनैतिक महत्वकांक्षायें भी बहुत बढ़ी हुईं हैं जिसमें वह धर्माधर्म, सत्यासत्य वा हिंसाहिंसा आदि का ध्यान न रखते हुए येन केन प्रकारेण अपने राजनैतिक लक्ष्य की प्राप्ति में लगे हुए हैं। दूसरी ओर भारत के धार्मिक मत व लोग हैं कि जो आज भी गहरी नींद में खतरों से अनभिज्ञ निद्रा व आलस्य से ग्रस्त हैं। यह लोग परस्पर असंगठित रहकर व अज्ञान व अन्धविश्वासों में लिप्त रहकर घातक प्रवृत्तियों के कार्याे में बाधक बनने के स्थान पर अपने व मानवता के शत्रुओं के सहयोगी बन रहे हैं। हम यह भी अनुभव करते हैं कि संसार के सभी मतों के एकीकरण व समरसता की बात तो बाद में है, पहले पौराणिक व आर्य समाजी ही परस्पर मिलकर सत्य के निर्णयार्थ कोई ठोस योजना बनायें व कार्य करें जिससे यह आपस में सभी धार्मिक विषयों में एक मत, एक विचार व एक सिद्धान्त हो जायें जिससे वेद व सनातन धर्म पर कोई संकट न आये। यदि संकट आये तो यह आने वाले संकटों पर विजय प्राप्त कर सकें। इस दिशा में आवश्यकता के अनुरूप कार्य नहीं हो रहा है जिससे हानि हो रही है और हमारे विरोधी मतों को लाभ हो रहा है जो गुप्त रूप से हमें समाप्त करना चाहते हैं। अतः महर्षि दयानन्द के प्रथम स्वप्न कि विश्व के सारे मनुष्य का धर्म केवल एक है तथा उसके लिए प्रयास होने चाहिये का कार्य अवरूद्ध है। महर्षि दयानन्द के अनुयायीययों को इस दिशा में सघन प्रचार कर अपने पौराणिक भाईयों को सहमत करने का हर सम्भव प्रयास करना चाहिये। साथ हि ऐसे प्रयास भी जारी रहने चाहिये जिससे संसार के सभी लोगों का सत्य वेद मत पर विश्वास उत्पन्न किया जा सके। यह सुनिश्चित है कि महर्षि दयानन्द और आर्य समाज का लक्ष्य सारे संसार को एक सत्य मत पर स्थिर करना व कृण्वन्तो विश्वमार्यम् वा विश्व को श्रेष्ठ विचारों, सिद्धान्तों, मान्यताओं व आचरण वाला बनाना है जिसमें वेदों के ज्ञान की प्रमुख भूमिका होगी। इसी से विश्व में शान्ति व सबका कल्याण होगा। महर्षि दयानन्द का कथन है कि विश्व स्तर पर एक धर्म, एक भाषा, एक भाव व सबका एक सुख-दुख के सिद्धान्त को स्वीकार करने पर विश्व में पूर्ण शान्ति हो सकती है। ,
महर्षि दयानन्द देश में जन्मना जाति व्यवस्था से भी व्यथित थे। उन्होंने इस जाति व्यवस्था को मरण व्यवस्था कहा है। इससे हमारा समाज व देश कमजोर हो रहा है। सभी अपने स्वार्थ व हितों को सामने रखकर कार्य करते हैं जो कि उचित नहीं है। ईश्वर की आज्ञा व ज्ञान के आधार पर सामाजिक व्यवस्था होनी चाहिये। किसी के साथ भेदभाव, पक्षपात व अन्याय नहीं होना चाहिये। सबको उन्नति के समान अवसर मिलने चाहिये और समाज में ऐसी भावना उत्पन्न की जानी चाहिये जिससे सब दूसरों की उन्नति में ही अपनी उन्नति समझे जिसका उदाहरण महर्षि दयानन्द व इसकी प्रथम पीढ़ी के लोगों का जीवन, आचरण व व्यवहार था। जन्मना जाति की प्रथा की समाप्ति के साथ विश्व से काले व गोरे अर्थात श्वेत-अश्वेत का भेद, अगड़े-पिछड़े का भेद, छोटे-बड़े व ऊंच-नीच की भावना भी खत्म होनी चाहिये। इसके लिए आर्य समाज को कमर कसनी चाहिये। महर्षि दयानन्द ने अपने समय में केवल एकांगी क्रान्ति नहीं की अपितु सर्वांणीण क्रान्ति की थी। उनके सभी विषयों पर विचार उनके सत्यार्थ प्रकाश व वेद भाष्य आदि ग्रन्थों में विद्यमान है। इनको अपनाने से ही देश, समाज व विश्व का कल्याण होगा। अतः समाज को नया वैज्ञानिक रूप देने के लिए जिसमें अन्य सभी सुधार के कार्यों के साथ उपर्युक्त दोनों सुधारों को भी मुख्य स्थान प्राप्त हो, पर ध्यान केन्द्रित करने व उसे गति देने की आवश्यकता है। हमारी नई पीढ़ी कुछ सीमा तक इस दिशा आगे बढ़ रही है परन्तु वह अनेक मुख्य व आवश्यक बातों की उपेक्षा भी कर रही है। अतः वेद व वेदों के विचार आज सर्वाधिक प्रासंगिक एवं महत्वपूर्ण हो गयें हैं जिनका मार्गदर्शन लेकर वेदानुरूप उन्नत व आधुनिक समाज का निर्माण किया जाना चाहिये।
–मनमोहन कुमार आर्य
स्वामी जी ने जो दो स्वप्न देखे थे वे देश के हित में हैं. जब वे स्वप्न पूरे होंगे तो देश विकास की उच्चतम सीढ़ी पर होगा, नहीं तो पीछे ही घिसटता रहेगा. आपक लेख उत्तम है.
सार्थक एवं उपयोगी टिप्पणी के लिए धन्यवाद।