उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 22)
19. प्रतिशोध की पहली चिंगारी
”आह यह दर्द, काफिर का खंजर था या कड़कती हुई बिजली। खबीस ने पेट फाड़ डाला। हसन, मुझे जल्दी से किसी हकीम के पास ले चलो। अब दर्द बर्दाश्त से बाहर है।“
इस वक्त हसन, नुसरत खाँ को अपने घोड़े पर उठाए जंगल के रास्ते तेजी से अपने लश्कर की तरफ बढ़ रहा था। नुसरत की दर्द भरी बात सुनकर बोला ”वजीरेआला, सारा लश्कर तो तितर-बितर हो गया है, पता नहीं कितने हलाक हुए हैं। पर आपके दर्द का इलाज थोड़ा बहुत मैं कर सकता हूँ।“
”ओह हसन! क्या तुम बयबां की ऐसी कोई शिफा जानते हो जो जख्म का दर्द कम कर सके।“
”हाँ वजीरेआला, दर्द कम करने की एक शिफा की मालूमात है मुझे, आजमाता हूँ शायद आराम मिले।“
”ठीक है हसन“, नुसरत टूटती आवाज में बोलता है। हसन, नुसरत खाँ को घोड़े से उतारकर एक दरख्त के सहारे बिठाता है। हसन दूसरे दरख्त की तरफ बढ़ता है, नुसरत दर्द जब्त करने के लिए आँखें बंद कर लेता है। हसन दबे पाँव लौटकर आता है, हाथ में नंगी तलवार है।
हसन नंगी तलवार की नोक तेजी से नुसरत के सीने में घुसेड़ता है। तड़पकर नुसरत आँखें खोलता है। हसन को देखकर नुसरत कराहते हुए बोला, ”अरे दुष्ट हसन, ये क्या किया तूने?“
”तेरी हत्या नुसरत खाँ, तेरी हत्या कर रहा हूँ।“ हसन तलवार निकालकर वापस वार करता है, नुसरत की चीख जंगल में गूँजती है। ”तेरी हत्या, तेरे कुकर्मों के लिए जो तूने मेरी मातृभूमि आन्हिलवाड़ में किए, उस पाप के लिए जो तू अपनी शय्या पर मेरे साथ और मेरी मातृभूमि की ललनाओं के साथ करता रहा।“
नुसरत विस्मय से हसन को देखता है। हसन फिर तलवार चलाता है। नुसरत की चीख एक पल को हवा में गूँजती है फिर शांत हो जाती है। हसन घृणा से नुसरत पर थूकता है। कुछ देर बाद वह वजीर नुसरत खाँ का शव घोड़े पर डाल दिल्ली के मार्ग की तरफ चल देता है।
प्रतिशोध का लावा कभी न कभी फूट ही जाता है. उपन्यास रोचक है.
जी सर, आभार