उपन्यास अंश

आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 37)

तब किसी अध्यापक की पत्नी ने या शायद कुलपति की बेटी ने दिल्ली दरबार में फरियाद की। मुझे अच्छी तरह याद है कि उस दिन 1983 की 12 मई थी। मैं प्रातः तथा दोपहर तक घेराव में शामिल था तथा अध्यापकों का प्रयत्न विफल करने में भी आगे रहा था। तब मैं 3-4 बजे रोज की तरह एन.आई.सी. पर कम्प्यूटर पर काम करने चला गया। उस दिन मेरा मन पता नहीं क्यों काम में नहीं लग रहा था। अतः मैं 6 बजे ही वापस आ गया। वापस आते समय मैंने देखा कि पुलिस की कई गाड़ियाँ तथा फायर ब्रिगेड की गाड़ियाँ भी हमारे कैम्पस की तरफ दौड़ती चली जा रहीं थी।

किसी अनहोनी की आशंका से मैं सहम गया। वहाँ पहुँचकर मुझे ज्ञात हुआ कि लगभग 5 बजे पुलिस भारी संख्या में कैम्पस में घुसी तथा घेराव कर रहे छात्रों को बेरहमी से पीट-पीटकर गिरफ्तार करके ले गयी। कुलपति आदि को मुक्त करा लिया गया तथा लगभग 50 छात्रों तथा छात्राओं को जेल में बंद कर दिया गया। उनमें से कई को अस्पताल भी जाना पड़ा।

भारी संख्या में पुलिस सारे कैम्पस में फैल गयी थी। धारा 144 की घोषणा हो चुकी थी। बाकी छात्रों, जिनमें छात्रसंघ के अध्यक्ष भी थे, ने यह तय किया कि कैम्पस में पुलिस हस्तक्षेप तथा छात्रों की गिरफ्तारी के विरोध में धारा 144 तोड़कर सामूहिक गिरफ्तारी दी जाय। तुरन्त ही काफी लोग गिरफ्तारी देने को तैयार हो गये। उनमें मैं भी था। सबका यह विचार था कि हम धारा 144 ही तोड़ रहे हैं, अतः अधिक से अधिक एक रात रखकर सुबह तक हमें छोड़ दिया जायेगा और हमारा विरोध पूर्ण हो जायेगा। लेकिन अधिकारियों के खूनी इरादों की हमें कोई भनक नहीं थी।

गिरफ्तारी में काफी ऐसे छात्र भी शामिल हुए थे, जिन्होंने तब तक किसी राजनैतिक गतिविधि में भाग नहीं लिया था। लगभग 500 छात्र-छात्राओं को गिरफ्तार करके पहले दिल्ली कैण्ट पुलिस स्टेशन ले जाया गया। वहाँ न तो हमारे सोने-बैठने का कोई इन्तजाम था और न खाने-पीने का। अतः ज्यादातर लोग थाने से बाहर आकर किसी कैण्टीन में खा-पी गये। तब तक किसी को किसी प्रकार की आशंका नहीं थी। रात लगभग 12 बजे हमें बताया गया कि सबको रात में तिहाड़ जेल में सोने भेजा जायेगा।

सबका नाम लिखना शुरू किया गया। ज्यादातर लड़कों ने अपना नाम और पता गलत बताया। कई लड़कों ने अपना पता लड़कियों के होस्टल का लिखाया। हमारे विश्वविद्यालय में होस्टलों के नाम नदियों के नाम पर हैं, जैसे गंगा, झेलम, सतलज, गोदावरी, कावेरी आदि। कई लड़कों ने होस्टल के नाम के रूप में ऐसी नदियों का नाम बताया, जिनके नाम पर कोई होस्टल नहीं था। जैसे जमुना, चम्बल, घाघरा, गोमती आदि। कई लड़कों के रूम नं. ऐसे थे, जिनका कोई अस्तित्व नहीं था। अधिकतर का नाम काल्पनिक था और उनमें से कई बाद में अपना नकली नाम भूल भी गये। मैंने स्वयं अपना नाम अरुण कुमार पुत्र मदन गोपाल बताया था।

बारी-बारी से बसों में भरकर हम लोग तिहाड़ जेल के एक वार्ड में लाये गये। वहाँ हमें कम्बलों का ढेर दिखा दिया गया। दो-दो तीन-तीन कम्बल उठाकर हम लोग इधर-उधर लेट गये। कई लोग भूखे ही सो गये। प्रातः उठने पर हम समाचार पत्रों तथा चाय का इन्तजार करने लगे। हमें सी-क्लास दी गयी थी, अतः चाय के नाम पर जो कुछ आया वह आया 10 बजे। लेकिन इससे पहले ही समाचार पत्रों के साथ जो समाचार आया, उसने हम सबको स्तब्ध कर दिया।

समाचार यह था कि हम सबको कई संगीन आरोपों में गिरफ्तार किया गया था, जिनमें प्रमुख थे- हत्या का प्रयास, अपहरण, हत्या के लिए अपहरण, डकैती, दंगा, आगजनी, मारपीट, लूटपाट आदि- आदि। यानी बलात्कार के आरोप को छोड़कर सारी भारतीय दंड संहिता हमारे ऊपर चस्पा कर दी गयी थी। इनमें उस धारा 144 का कोई जिक्र नहीं था, जिसे तोड़कर हमने गिरफ्तारी दी थी। समाचार में आगे बताया गया था कि आरोपों की जाँच चल रही है और हमें 14 दिन की पुलिस रिमाण्ड पर रखा गया है, जिसके बाद हमें कोर्ट में पेश किया जायेगा।

यह हमारे साथ जबर्दस्त धोखा था। ऊपर जिन धाराओं का जिक्र किया गया है उन्हें पढ़कर कौन नहीं हँसेगा। लेकिन पुलिस और विश्वविद्यालय के अधिकारियों में अगर इतनी ही शर्म होती तो इस बात का मौका ही नहीं आता। उन्होंने जी खोल कर अपनी धूर्तता, बेईमानी, झूठ, मक्कारी और नीचता का परिचय दिया था। गिरफ्तारी के समय हमें यही बताया गया था कि हमें धारा 144 तोड़ने के आरोप में गिरफ्तार किया जा रहा है। हम सब स्वेच्छया ट्रकों में शान्तिपूर्वक चढ़े थे। हमारे पास कोई हथियार तो क्या मामूली डंडा भी नहीं था। दूसरे हमें किसी मजिस्ट्रेट के सामने भी पेश नहीं किया गया था और न जेल भेजते समय हमें आरोपों को पढ़कर सुनाया गया था। जाहिर है सारी कार्यवाही अनैतिक और अन्यायपूर्ण थी।

लेकिन हम अब पछताने के सिवा कुछ नहीं कर सकते थे। बिडम्बना तो यह है कि अधिकांश समाचारपत्रों, जिनमें स्वयं को निष्पक्ष बताने वाला तथाकथित राष्ट्रीय समाचार पत्र ‘टाइम्स आॅफ इण्डिया’ भी शामिल था, की सहानुभूति विश्वविद्यालय के अधिकारियों के साथ थी और बिना यह जाने कि छात्रों को घेराव जैसा कदम उठाने पर क्यों बाध्य होना पड़ा, वे छात्रों की आलोचना कर रहे थे और उन्हें कठोर से कठोर दण्ड दिये जाने के पक्ष में थे। हम जानते थे कि इन सबके लिए आदेश ‘ऊपर’ से आये थे। उस समय दिल्ली की गद्दी पर इन्दिरा गांधी विराजमान थीं और दिल्ली का उप राज्यपाल था इमरजेंसी का कुख्यात जगमोहन, जिसका नाम तक लेने में भी छात्र घृणा से थूक देते थे।

इन्दिरा गांधी यह मौका हाथ लगने पर छात्रों से अपना विरोध करने का बदला गिन-गिन कर ले रही थी। उन्हें यह ख्याल नहीं था कि इस तरह की अत्याचारपूर्ण कार्यवाही से देश के कितने भावी कर्णधारों की जिन्दगी मिट्टी में मिल सकती है। कहीं फरियाद करने का भी कोई अर्थ नहीं था। यह जानते हुए भी कि सभी गिरफ्तार छात्र-छात्राएं उच्च शिक्षित हैं, हमें पहले सी-क्लास दी गयी, जो कि सामान्य अपराधियों को दी जाती है। पहले दिन हमें सी-क्लास का ही ‘खाना’ खाने को मिला जिसमें थे चने की दाल और रोटी। करीब दो दिन ऐसे ही खाने पर रखने के बाद ही हमें बी-क्लास दी गयी और तब हमें अपना खाना स्वयं बनवाने का अधिकार मिला।

एक शेर है –
किस किसके हाथों में ढूँढूँ लहू अपना।
तमाम शहर ने पहने हुए हैं दस्ताने।।

यह शेर हमारी उस हालत पर सही बैठता था। इधर हम जेल में अपनी रिमाण्ड पूरी होने की प्रतीक्षा कर रहे थे, उधर विश्वविद्यालय के कैम्पस में बचे हुए छात्रों पर अत्याचारों का सिलसिला जारी था। वि.वि. को अनिश्चित काल के लिए बंद घोषित कर दिया गया था और छात्रों को दो दिन, जिसे सरकारी भाषा में 48 घंटे कहा जाता है, में सारे कमरे खाली करने और वहाँ से भाग जाने का आदेश दिया गया था। कैम्पस में तनाव अपनी चरम सीमा पर था और कई लड़के अन्त समय तक डटे रहने के पक्ष में थे, चाहे उन्हें फाँसी पर ही क्यों न चढ़ जाना पड़े। लेकिन ज्यादातर छात्र और छात्र नेता टकराव बचाने के पक्ष में थे, अतः होस्टल खाली करने का निर्णय लिया गया।

मेरे कमरे की चाभी मेरे पास ही थी और मैं अपने कमरे का बल्ब जलता ही छोड़ आया था। मैं केवल एक बुशशर्ट और पैण्ट पहने हुए था और पैरों में हवाई चप्पल मात्र थी। किसी तरह मैंने अपनी चाबी भेजी और अपने दोस्तों के द्वारा अपने कपड़े आदि मँगाये। उन्होंने मेरे कमरे का काफी सामान भी गट्ठरों में बाँधकर अपने हितैषी एक अध्यापक के घर में रख दिया था। दूसरे कपड़े आने में लगभग चार दिन लग गये थे। तब तक मेरा हुलिया बहुत बिगड़ गया था। दाढ़ी बढ़ गयी थी, कपड़े गन्दे हो गये थे तथा जेब में फूटी कौड़ी भी नहीं थी, ताकि बाहर से कोई चीज मंगायी जा सके। सबका लगभग यही हाल था। नये कपड़े आने पर हमारा हुलिया कुछ दुरुस्त हुआ। मनोरंजन के लिए पत्रिकायें, ताश, गेंद, ढोलक, मजीरे आदि भी मंगाये गये। पाँचवें या छठे दिन नाई ने दर्शन दिये, जिससे लड़कों ने अपना थोबड़ा साफ कराया।

पास की ही एक दूसरी जेल में 50 के लगभग छात्राएँ भी बंद थीं। लेकिन वहाँ तक जाने की अनुमति हमें नहीं थी। बी-क्लास मिल जाने पर हमें दोपहर को मिलने आने वालों से मिलने की अनुमति मिलती थी। कई लड़कों ने इस अनुमति का अनुचित लाभ भी उठाया। जो लोग बाहर से मिलने आते थे उन्हें अन्दर घुसाते समय उनके हाथ पर एक मोहर पहचान के लिए लगा दी जाती थी। कई लड़के हाथ से हाथ दबाकर वह मोहर अपने हाथ पर छाप लेते थे और उसे दिखाकर बाहर निकल जाते थे। एक बार बाहर जाने के बाद उनका पकड़ा जाना असंभव था, क्योंकि उन्होंने अपना नाम-पता सब गलत बताया था और इस बात का भी कोई प्रमाण नहीं था कि वे कभी जेल में थे। जेल वालों की आंखों में धूल झोंककर दो दिन में लगभग 75 लड़के जेल से भाग गये।

यही तकनीक कुछ लड़कियों ने भी अपनायी और वहाँ से भी 5 लड़कियाँ इसी तरह निकल भागीं। इस बात का पता लड़कियों की जेल में पहले ही दिन चल गया, क्योंकि उनकी प्रतिदिन सोते समय गिनती की जाती थी। जैसे ही यह समाचार ऊपर पहुँचा, मानो तूफान आ गया हो। फौरन ही लड़कों की गिनती करायी गयी और गिनती से ज्ञात हुआ कि लगभग 75 लड़के भी उड़नछू हो गये हैं। कुछ लड़कों की इस कारगुजारी से अधिकारी बौखला गये। 75 लड़के तो मुक्त हो गये, लेकिन जो अभी भी जेल में थे, हमारे जैसे, उन्हें उस सबका खामियाजा भुगतना पड़ा।

फौरन ही हमारी स्वतन्त्रता सीमित कर दी गयी। अब तक हम पूरी जेल में कहीं भी खुले घूमते रहते थे। अब वह सुविधा वापस ले ली गयी। मिलने आने वालों से आमने-सामने मिलना निषिद्ध कर दिया गया और गिने चुने लड़कों को ही जंगले के पीछे से ही मिलने की अनुमति मिलने लगी।

लड़कों के रफू चक्कर होने की सजा जेल के अधिकारियों को भी भुगतनी पड़ी। जेलर और उपजेलर सहित आठ लोगों को निलम्बित कर दिया गया। हमारा जेलर एक बहुत लम्बा और रौबदार आदमी था। हम सब फाटक के बीच में कटे हुए दरवाजे से होकर अन्दर बाहर आते जाते थे। और हमें सिर भी झुकाना पड़ता था। लेकिन वह पूरा फाटक खुलवाकर बड़ी शान से नाक ऊँची करके निकलता था। जब वह निलम्बित हो गया तथा गिरफ्तार भी होकर जमानत पर छूटा, तो लड़के मजाक में कहा करते थे कि अब यह भी हमारी तरह सिर झुकाकर फाटक में घुसा करेगा और खाने के लिए थाली लेकर लाइन में खड़े रहा करेगा। बीच में वह एक-दो बार सादे कपड़ों में हमसे मिलने भी आया।

बी-क्लास मिलने के बाद हमारा खाना बहुत सुधर गया था। खाना बनाने का सारा सामान हमारे पास आ जाता था और कुछ लम्बी सजा काट रहे कैदियों को लगाकर खाना बनवाया जाता था। कई लड़कों ने इस बात की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी और वे उस जिम्मेदारी को बड़ी लगन के साथ निभाया करते थे। खाना बनाने में प्रायः देर अवश्य हो जाती थी लेकिन मिलता बहुत अच्छा था। रोज ही पूरी, चावल या पुलाव, दाल, सब्जी, खिचड़ी, खीर, दूध, केले, बिस्कुट, अण्डा, ब्रेड, चाय, काफी आदि मिला करते थे। लड़के मुफ्त के इस बढ़िया खाने को पाकर बहुत खुश रहते थे। सारा दिन हम गप्पों में या ताश खेलने में बिता देते थे। मैंने ‘ट्वेन्टी नाइन’ नामक ताश का खेल वहीं पर सीखा और दो-तीन दिन में ही मैं इस खेल में पारंगत हो गया था। कई लड़के शतरंज खेलते रहते थे और बहुत से बालीवाल भी। संगीत प्रिय छात्र ढोलक-मजीरों पर तरह तरह के भजन-गीत आदि गाया करते थे। कुल मिलाकर हम तिहाड़ जेल में बहुत खुश थे।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

6 thoughts on “आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 37)

  • इंतज़ार, सिडनी

    आप की हर कड़ी पड़ कर ऐसा लगता है जैसे कल की घटना हो …क्यों की समय तक लिखा है ! ज़रूर आप डायेरी में घटनाओं को लिखते होंगे या याददास्त इतनी बढ़िया है !…… लिखते रहें

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद, इन्तजार जी. मैंने डायरी में कुछ नहीं लिखा. आत्मकथा का यह भाग मैंने इस घटना के लगभग एक-डेढ़ साल बाद लिखा था. उस समय तारीखें भी याद थीं. वैसे भी यह सारा घटनाक्रम मेरी डिग्री और नौकरी के साथ जुडा हुआ है, इसलिए भूलने का प्रश्न ही पैदा नहीं होता. आपका पुनः आभार !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई, कहानी दुःख दाएक लगी और सब से ज़िआदा बेइंसाफी का इतहास पड़ कर बहुत बुरा लगा कि भारत का सविधान कहाँ है ? वैसे इंद्रा गांधी के समय में ताकत का नशा आसमान छू रहा था, इमरजेंसी के समय तो इस की इन्तहा ही हो गई थी. पंजाब में भी मैं कुछ सिख नीतिओं से असैहमत था लेकिन इस को लेकर कांग्रस की ओर से जो शतरंज की गेम खेली गई उस का क्लाएमैक्स इंद्रा गांधी की मौत के बाद हुआ जब सारे भारत में सिखों का कत्लेआम किया गिया और इतने हज़ार कतल करके , उनकी प्रौपर्ती बर्बाद करे भी एक शख्स को सजा नहीं हुई, यह भारत की डैमोक्रेसी और सेकुलरिज्म का मज़ाक उड़ाता है. और कातिल अब भी शरेआम घूम रहे हैं.

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा, भाई साहब आपने. हमें इंदिरा गाँधी से इसी कारण सबसे ज्यादा घृणा थी.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपका व आपके साथिओं का झोठे आरोपों में जेल में जाना सत्ता के दुरूपयोग का उदहारण है। अत्याचार करने वाले लोग यह नहीं सोचते कि भविष्य में समय बदलेगा और अर्श पर रहने वाले लोग फर्श पर भी आ सकते हैं। अपने असहयोगियों को झूठे आरोप में जेल भिजवाना स्वार्थान्धता का उदहारण है। आपके संघर्षपूर्ण विद्यार्थी जीवन का विवरण पढ़कर उसका ज्ञान हुआ इसके लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद, मान्यवर !

Comments are closed.