बसंत ऋतु
क्यों तुम चुपचाप हो
मौन और अनमन
बसंत ऋतु का प्रिये
हो चूका है आगमन
कलियाँ खिल गयी
भंवरे कर रहे
पंखुरियों पर गुंजन
मंथर हैं सरिता प्रवाह
स्थिर से जल में
स्वर्णिम किरणे
कर रही हैं नर्तन
आम के पत्तों के झुरमुठ से
घिरे हुये घोसलों का
सूनापन
कर रहा अभी से
काल्पनिक प्रणय का सृजन
नयनों से नयन मिलकर
कर रहे
एक दूसरे का चयन
जिन्हें
करना है पाणिग्रहण
सरसों की कमनीय शाखों में
पीली धुप जैसे खिल आई हो
सुहावना लग रहा है वातावरण
गुबार सा उड़ते हुए
आया हूँ मैं भी
तुम्हारे द्वार तक
तुम्हारे पद चिन्हों से
भरा भरा
लग रहा है प्रांगण
चिड़ियों का कलरव
सुन कर ही आ जाओ बाहर
दुर्लभ लग रहा
मुझे तो तुम्हारा सुदर्शन
बीत गए कई बसंत
इस बार तो अपनी
जुबाँ से बोल दो प्रिये
प्यार के मधुर वचन
क्यों तुम चुपचाप हो
मौन और अनमन
बसंत ऋतु का प्रिये
हो चूका है आगमन
किशोर कुमार खोरेन्द्र
वाह बहुत खूब
shukriya
बढिया !
shukriya