आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 38)
इसी बीच एक दिन मेरे भाई डा. राममूर्ति सिंघल भी मुझसे मिलने जेल में आये। मेरा काफी दिन तक पत्र न पहुंचने पर और अखबारों में गिरफ्तारी के समाचार छपने पर उन्हें शंका हुई थी। इसलिए भाई साहब को माताजी-पिताजी ने आगरा से भेजा था। उन्होंने मुझे 100 रुपये दिये। मैंने कहा कि किसी बात की चिन्ता न करें और मैं जल्दी ही बाहर आकर लखनऊ नौकरी करने चला जाऊँगा।
लेकिन हमारे साथ बहुत से ऐसे लड़के भी थे, जो हर समय जमानत पर बाहर जाने की रट लगाते रहते थे। ऐसे लोगों में एस.एफ.आई. के समर्थक अधिक थे जो वैसे तो बहुत क्रान्तिकारी बनते हैं, लेकिन समय पड़ने पर दुम दबाकर भाग जाते हैं। लेकिन हमारी जमानत होना भी आसान नहीं था क्योंकि हम सबने अपने गलत नाम दे रखे थे। कोई भी व्यक्ति जाली नाम पर हमारी जमानत लेने को तैयार नहीं होता। प्रत्येक छात्र संगठन के सदस्य अपने अपने आकाओं के माध्यम से जमानत लेने की कोशिश करने लगे। सबसे पहली सफलता एस.एफ.आई. के ही समर्थकों को मिली। उन सबको अपना असली नाम बताना पड़ा। तब सबने यही तय किया कि सब अपना अपना असली नाम बताकर जमानत ले लें। सब लोगों के हाथ की छाप भी ली गयी और जिनके पास अपना परिचय पत्र नहीं था, उन्हें फोटो भी खिंचवाना पड़ा। मैं भी अपना परिचय पत्र नहीं ला सका था, अतः मुझे भी फोटो खिंचवाना पड़ा।
अदालत से हमारी जमानत पर रिहाई के आदेश हो चुके थे। अतः हमारे जो सहयोगी और मित्र बाहर रह गये थे, उन्होंने भाग दौड़ करके हमारी जमानत करा दी। आखिर सब लोग 21 मई, 1983 को अर्थात पूरे 10 दिन बाद शाम 7 बजे तिहाड़ जेल से बाहर आ गये।
बाहर आकर मुझे ज्यादा खुशी नहीं हुई क्योंकि अब मुझे सन्देह हो चला था कि लखनऊ में मुझे नौकरी पर नहीं लिया जायेगा। मेरा व्यक्तिगत विचार यह था कि चार दिन की रिमाण्ड और पूरी करके हम सब कोर्ट में पेश होते और वहाँ मजिस्ट्रेट को अपनी राम कहानी सुनाकर रिहाई हासिल करते। लेकिन मेरे विचार को दूसरे लोगों का समर्थन नहीं मिला और वे किसी भी तरह बाहर जाना चाहते थे। उनका विचार था कि एक बार बाहर पहुँच जायें, तो सारा मामला किसी न किसी तरह खत्म करा ही देंगे। लेकिन उनकी आशा गलत सिद्ध हुई। अभी भी सारे छात्रों पर सभी संगीन केस लगे हुए हैं और आज तक एक भी तारीख नहीं पड़ी है। केस वापस कराने के सारे प्रयत्न अभी तक असफल ही सिद्ध हुए हैं।
(पादटीप : ये सारे केस लगभग २ साल बाद ही समाप्त हो पाए थे.)
हमें न्याय मिलने की आज भी कोई उम्मीद नहीं है, क्योंकि जिन लोगों ने हमारे खिलाफ केस लगाये हैं, लगभग वही लोग हमारी किस्मत का फैसला करने वाले हैं। एक शे’ र है –
उन्हीं का शहर, वही मुद्दई, वही मुंसिफ।
मुझे यकीन था मेरा ही कसूर निकलेगा।।
रिहा होते समय वहाँ संघ और विद्यार्थी परिषद के एक प्रचारक मा. सुरेश जी आ गये थे, जिनके साथ संघ से सम्बन्धित हम आठ-दस लड़के उसी समय दिल्ली में संघ के प्रमुख कार्यालय केशव कुंज गये। वहाँ संघ के प्रचारक मा. इन्द्रेश जी ने हमें अपने हाथों से चाय बनाकर पिलायी और हमारी हिम्मत भी बढ़ाई। फिर हमने वहीं खाना खाया और रात बितायी। इन्द्रेश जी ने आगरा जाने के लिए मुझे 50 रुपये भी उधार दिये।
प्रातः होने पर मैं सबसे पहले अपने होस्टल गया। वहाँ मेरे कमरे के ताले पर सील लगी हुई थी। वार्डेन से कहकर मैंने सील तोड़ी और अपना कुछ सामान लिया। मेरा अधिकतर सामान संघ के कार्यकर्ताओं ने पहले ही दूसरी जगह पहुंचा दिया था। उनमें मेरे कपड़े और बिस्तर भी शामिल थे। लेकिन सभी किताबें तथा कुछ अन्य चीजें उस कमरे में अभी भी पड़ी हुई थीं। जिनको सुरक्षित स्थान पर रखना आवश्यक था, क्योंकि वार्डन ने कहा था कि जून-जुलाई में सभी कमरों को खोला जायेगा (आवश्यक हुआ तो ताला तोड़कर भी) तथा सामान फेंक दिया जायेगा। उस समय सारा सामान न तो आगरा ले जाना संभव था और न किसी सुरक्षित स्थान पर रखना ही। अतः मैंने यह विचार बनाया कि अभी मैं आगरा जाऊँ और वहाँ से आवश्यक सामान और रुपये लेकर वापस दिल्ली जाऊँ। फिर यहाँ सामान को सुरक्षित स्थान पर रखकर लखनऊ चला जाऊँ।
रेलवे में आरक्षण कराने का समय नहीं था। अतः मैं तुरन्त आगरा चल पड़ा। उस दिन 22 मई थी। मेरे आगरा पहुँचने पर सभी बहुत खुश हुए और मेरा लखनऊ जाने का विचार जानकर भी प्रसन्न हुए। यद्यपि हमें इस बात का सन्देह था कि मुझे नौकरी पर ले लिया जायेगा या नहीं, क्योंकि मैं एक दो दिन लेट हो गया था। फिर भी पिता जी ने कहा कि यदि चार्ज मिल जाता है तो ठीक है, नहीं तो वापस आ जाना। मुझे वैसे नौकरी की ज्यादा चिन्ता नहीं थी, क्योंकि दिल्ली में एन.आई.सी. में भी मेरी नौकरी लगना तय था। फिर सोचा कि बेकार बैठने से तो अच्छा ही है कि दो-चार महीने लखनऊ में ही नौकरी कर ली जाये। अगर वहाँ अच्छा न लगा तो दिल्ली वापस आ जाऊँगा।
तब तक जवाहरलाल नेहरू वि.वि. से मेरा मन एकदम उचट गया था। वहाँ के दमघोंटू वातावरण, जो अब सारे कैम्पस पर छा गया था, में मैं बिल्कुल नहीं जाना चाहता था। उस समय तो वहाँ तीन-चार महीने तक जाने का प्रश्न ही नहीं था। यही सोचकर मैं अपने साथ मात्र 500 रुपये और छोटा-मोटा सामान लेकर माताजी-पिताजी तथा भाभीजी-भाईसाहब के चरण छूकर दिल्ली के लिए चल पड़ा।
सबसे पहले मैं केशव कुंज गया। वहाँ इन्द्रेश जी से मिला। उनके रुपये वापस किये और घर से लायी थोड़ी सी मिठाई भी भेंट की। उन्हें मेरी नौकरी की मुझसे ज्यादा चिन्ता थी। उनसे मैंने उस घर की चाबी की पूछताछ की, जहाँ मेरा सामान रखा हुआ था। पता चला कि चाबी संजय सत्यार्थी जी के पास है। उनका ठीक-ठीक ठिकाना मुझे ज्ञात नहीं था, लेकिन यह पक्की तरह पता था कि वे ज.ने.विश्वविद्यालय कैम्पस में दिन में आते हैं। यह सोचकर मैं वि.वि. कैम्पस में आ गया। वहाँ मैंने संजय जी को बहुत ढूँढ़ा, लेकिन कोई पता नहीं चला।
मेरी सारी किताबें और कुछ अन्य सामान मेरे होस्टल के कमरे में अभी भी रखा हुआ था। उसे सुरक्षित स्थान पर रखना आवश्यक था, नहीं तो मेरा काफी नुकसान हो जाता। मेरे प्रमाण पत्र भी वहीं रखे हुए थे। उस ताले पर फिर से सील लगा दी गयी थी और वार्डन ने उसे खोलने की अनुमति देने से इंकार कर दिया। उसने कहा कि मैं अपने होस्टल के प्रोवोस्ट से अनुमति लेकर आऊँ। परेशान सा मैं प्रोवोस्ट के घर गया और अपनी समस्या बताकर कमरा खोलने की अनुमति चाही। काफी कहने सुनने पर वे इस शर्त पर अनुमति देने को तैयार हुए कि मैं 12 बजे तक सारा सामान निकाल लूँगा। और कमरा पूरी तरह खाली कर दूँगा। उस समय प्रातः के 10 बजे हुए थे और मेरे पास केवल 2 घंटे थे। इतना भी समय पर्याप्त जानकर मैंने आकर अपना ताला खोला और किताबों को बाँधना शुरू कर दिया। एक घंटे के अन्दर मैंने ज्यादातर सामान और सभी किताबों को पैकिंग कर ली। लेकिन काफी छोटा मोटा सामान मेरा अभी भी वहीं पड़ा हुआ था, जिसे बाँधना सम्भव नहीं था।
होस्टल में उस समय कुछ कमरे इसलिए सुरक्षित किये गये थे कि छात्र कमरा खाली करते समय अपना कुछ सामान अपनी जिम्मेदारी पर उनमें रख सकते थे। काफी कह सुनकर होस्टल के केयर टेकर (देखभाल करने वाला) को अपने तीन चार बण्डल एक कमरे में रखने को राजी किया। यह करते-करते साढ़े ग्यारह बज गये थे। लखनऊ ले जाने के लिए कुछ सामान मैंने एक बक्से में रख लिया और कुछ महत्वपूर्ण कागज आदि एक अटैची में रख लिये। कमरा खाली करके भी मैंने अपना ताला लगा दिया। मैंने सोचा कि यदि मेरे कमरे का ताला नहीं तोड़ा जाता है तो मैं जुलाई में आकर बाकी छोटी मोटी चीजें भी इकट्ठी कर लूँगा। ठीक साढ़े ग्यारह बजे मैंने कमरा छोड़ दिया।
कमरा छोड़ देने के बाद मुझे फिर संजय जी का इन्तजार करना था। बैठने के लिए कोई अच्छी जगह नहीं थी और मुझे नींद भी आ रही थी। अतः मैं एक होटल में खाना खाकर मैस में जाकर लेट गया। वहीं मैंने अपना सामान रख दिया जो लखनऊ ले जाना था। तभी मुझे अपने गाइड की याद आयी। उनका घर पास में ही था और मैं अभी तक उनसे मिला भी नहीं था, अतः मैंने सोचा कि दोपहर उनके ही घर गुजारी जाय। खाना मैं खा ही चुका था, इसलिए उसकी चिन्ता नहीं थी। यह सोचकर मैं डा. सदानन्द के घर गया। सौभाग्य से वे घर पर ही मिल गये। वे यह जानकर बहुत खुश हुए कि अब मैं नौकरी पर जा रहा हूँ।
वहाँ मैं थोड़ी देर लेटा। शाम के 5 बजने पर मैं बाहर निकला यह देखने कि संजय जी शायद आ गये हों। मेरे आश्चर्य और खुशी का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि संजय जी उसी घर के बाहर मेरा इन्तजार कर रहे थे, जहाँ हमारा सामान रखा हुआ था। केशव कुंज से उन्हें यह सूचना मिल गयी थी, यद्यपि कुछ देरी से, कि मैं अपना सामान लेने आया हूँ और उन्हें ढूँढ़ रहा हूँ। तुरन्त ही मैंने अपना आवश्यक सामान निकाला। बाकी वहीं रहने दिया और लखनऊ जाने के लिए सारा सामान इकट्ठा कर लिया। संजय जी उसी समय चले गये और मैं भी अब लखनऊ जाने के लिए एकदम तैयार था।
वापस डा. सदानन्द के घर जाकर मैंने उन्हें सूचना दी कि मेरा सारा सामान मिल गया है और अब मैं 8 बजे तक स्टेशन पर पहुँच जाना चाहता था। डा. सदानन्द ने कहा भी कि मैं खाना खाकर जाऊँ, नहीं तो शायद समय न मिल सके। लेकिन खाना बनने में देर लगती और मेरे पास ज्यादा समय नहीं था, अतः मैं चाय पीकर ही स्टेशन के लिए चल दिया।
जिस समय मैं स्टेशन पहुंचा उस समय रात के 8 बज रहे थे। लखनऊ मेल प्लेटफार्म पर आ चुकी थी और उसमें काफी भीड़ भी थी। मेरा रिजर्वेशन था नहीं, इसलिए मुझे सामान्य बोगी से ही जाना था। समय नष्ट करना गलत होता, अतः मैंने तुरन्त टिकट लिया और एक साधारण डिब्बे में घुस गया। उसमें काफी भीड़ थी, लगभग सारी जगह भर गयी थी। अन्दर घुसने के लिए मुझे संघर्ष करना पड़ा। सामान रखने के लिए भी थोड़ी खींचतान करनी पड़ी। लेकिन बैठने की जगह न मिलने के कारण मैंने अपने बिस्तर का गट्ठर फर्श पर रख दिया और उसके ऊपर बैठ गया।
मैंने उस शाम एक चाय के सिवा कुछ भी खाया-पिया नहीं था। अगर मैं प्लेटफार्म पर कुछ खाने जाता, तो मुझे डर था कि लोग मेरी जगह पर कब्जा कर लेंगे और फिर अन्दर घुसना भी मुश्किल होगा। अतः मैं भूख-प्यास दबाकर बैठा रहा। ठीक 9 बजे गाड़ी छूटी और उसके साथ ही मैं भी भूखा-प्यासा ही अफसर बनने के लिए चल पड़ा।
(जारी…)
विद्यार्थी जीवन तो ख़त्म सा हुआ और संघर्ष भी …शायद …तो अब मुर्गे की चौथी टांग होगी ?….just kidding…..
आप की संघर्ष भरी जिंदगी को पड़ कर रौंगटे खड़े हो गए, आगे कहने के लिए कुछ बचा नहीं, धन्यवाद .
बहुत बहुत धन्यवाद, भाई साहब ! संघर्षों का नाम ही जिंदगी है. कठिनाइयों से लड़ना मेरा शौक है.
आज की किश्त मे प्रकाशित विवरण पढ़ा। आपको अकारण १० दिनों तक जेल में रहना पड़ा, यह पढ़कर और सोच कर दुःख होता है। इससे जुडी घटनाएँ आगे पढ़कर बहुत कुछ जानने के लिए मिलेगा, ऐसी उम्मीद है। लखनऊ में आप किस विभाग या किस बैंक में कार्यभार ग्रहण करने जा रहे है, इसकी मन में जिज्ञाशा है।
मान्यवर, आभार. मेरे विद्यार्थी जीवन की कथा अब समाप्त होने को है. इसके बाद अपने अधिकारी जीवन की कहानी प्रस्तुत करूँगा. तब आपकी जिज्ञासा शान्त होगी.
जिन्दगी की जंग ,उसूलों ,की जंग ,आदर्शों की जंग ,, आह सांस-सांस जिन्दगी जंग .. रोचक लगी आपके उपन्यास की यह कड़ी पुरानी किश्तें भी पढूंगी समय निकाल कर
बहुत बहुत धन्यवाद, आशा जी. इस आत्मकथा की पुरानी कड़ियों के लिंक आपको इसी वेबसाइट पर मिल जायेंगे. आपको अवश्य रोचक लगेगी. कोई कठिनाई हो तो मुझे बताएं.