प्रतीक
नदी के किनारे की रेतीली स्लेट पर
अब भी तुम्हारे मन के लहरों की उंगलियाँ
कुछ लिख रही होंगी
हिचकोले खाते तिनकों से
तुम कह रही होगी
रुक जाओ पढ़ तो लो
मंदिर की सीढियों की झिलमिलाती परछाईयाँ
तुम्हारे और करीब आ गयी होंगी
धूल धूसरित पीपल की पत्तियाँ
कहती होंगी मेरी हथेली पर भी
रच दो प्रेम का अनूठा रंग
तुम्हे छूकर लौटती हुई सी पगडंडी पर
दूर तक कोई नहीं होगा
सिवा मौन के ..खामोशी के ..
और मेरे पदचिन्हों के ..
तुमसे बिछड़ने और फिर मिलने के मध्य का
यह दर्द से परिपूर्ण अंतराल
ही तो हम दोनों के जीवित होने का प्रतीक है
kishor kumar khorendra
बहुत खूब .
जीवित होने का प्रतीक ….भावपूर्ण
shukriya intazaar ji