उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 24)
21. प्रथम अभिसार
निश्चित समय पर पिता की आज्ञा से अंगरक्षकों से सुरक्षित राजकुमारी देवलदेवी जालिपा माई के उत्सव में सम्मिलित होने को चली। जालिपा माई का मंदिर देवगिरी के समीप था। राजकुमारी के साथ कुछ देवगिरी की दासियां भी थीं, कुछ उसके छोटे-से राज्य बगलाना की।
मार्ग में एक दासी जिसे शंकरदेव की विशेष कृपा प्राप्त थी, देवलदेवी को लेकर एक कंदरा में आई। यह कंदरा साज-सज्जा में महलों को पीछे छोड़ रही थी। राजकुमारी दासी को देखकर बोली, “तू कौन है, दासी?”
“मैं नाउन हूँ, राजकुमारी।”
राजकुमारी ने मुस्कराकर कहा, ”अच्छा दासी।“
नाउन ने देवलदेवी का अंग संस्कार किया, उन्हें सुवासित किया। फिर वह सुबासित मदिर एक से बढ़कर एक भोजन सामग्री उनके सामने आई तो उनसे रहा नहीं गया। उन्होंने कहा ”दासी, तेरे स्वामी क्या दर्शन न देंगे?“
”यह तो उनकी इच्छा पर निर्भर है, राजकुमारी। पर अभी आप भोजन करके तनिक विश्राम कर लें।“
”तनिक उन्हें बुला दो दासी।“
”क्यों नहीं देवी, वह तो खुद आपके दर्शन को आतुर हैं।“ शंकरदेव ने हँसते-हँसते आकर कहा।
देवलदेवी ने तनिक आवेश से जी भरके शंकरदेव को देखा। शंकरदेव ने कहा ”आप मुझ पर क्रोधित तो नहीं हैं, देवी?“
”तुम्हारे जैसे समर्थ का कोई क्या कर सकता है, हम वैसे भी आपके शरणागत हैं, युवराज।“
शंकर ने हँसकर कहा, ”…और हम अपने शरणागत के शरणागत होना चाहते हैं।“
तभी नाउन बोली, ”क्षमा करें युवराज पर राजकुमारी ने अब तक भोजन ग्रहण नहीं किया। कुछ खाओ-पियो।“
दोनों बैठ गए। समय पाकर नाउन पान लेने के बहाने खिसक गई। देवलदेवी ने शंकर का हाथ पकड़ कर कहा, ”तुम आज समर्थ, सक्षम, कामचारी दिव्य पुरुष प्रतीत होते हो।“
शंकर ने देवलदेवी के दोनों हाथ पकड़ कर कहा, ”यह शंकर तुम्हारा ही है, प्रिये देवल देवी।“
”तो युवराज, मुझे सहारा देना, जब-जब मैं स्खलित होऊँ तब-तब मुझे सहारा देना।“
देवलदेवी के होठ काँपे, फिर उन्होंने अवरूद्ध स्वर में कहा ”यह मत भूलना शंकर मैं एक असहाय दुर्बल नारी हूँ। तुम पुरुष की भांति मेरी रक्षा करना। मैं तुम्हारी दासी, तुम्हारी शरण में हूँ।“ देवलदेवी शंकर के पैर में गिर गई। शंकर ने उसे उठाकर भुजापाश में भर लिया और अपने आग के समान दहकते होंठ देवलदेवी के शीतल और कांपते होंठों पर रख दिए। देवलदेवी अर्धमूर्छित होकर शंकर के अंक में बिखर गई।