~~~~हींग लगे न फिटकरी~~(लघुकहानी )
पिता से देसी नहीं जर्सी गाय लेने को लड़ाई करके चार साल पहले महेश गाँव से भाग आया था | पढ़ा लिखा था नहीं, हुनर के नाम पर गाय भैस दुहना आता था|अतः मजबूर हो किसी तरह दोस्त से कर्ज लेकर जर्सी गाय खरीदी पर बांधे कहाँ| खुद ही सड़क किनारे झुग्गी झोपड़ी में रह रहा था|
उसने देखा शहर में जूसऔर फल की दुकानों के सामने अच्छा ख़ासा फल-छिलका कचरा रूप में फैला होता है| महंगाई में अधिक चारा भी खरीदने के पैसे तो उसके पास थे नहीं| बस उसके दिमाक की घंटी बजी| अब सुबह थोड़ा सा चारा डाल दूध दुहता फिर गाय छोड़ देता सड़क पर| कुछ दिन लोग उस पर चिल्लाये, फिर उन्हें लगा कि आकर वेस्ट(waste) ही तो खाती है गंदगी नहीं होती और पुन्य भी हो जाता है| अब तो महेश के दोनों हाथों में लड्डू थे क्योकि ज्यादातर दुकानदार पुचकार-पुचकार दूकान बंद करते-करते सारा खराब फल, सब्जी और छिलके खिला देते| गाय बिना किसी को परेशान करें रोज वही चक्कर लगाती और सारा कुछ खा चुपचाप अपने मालिक के पास सड़क किनारे बैठ जाती|
पिता को दस हजार भेजते हुय उसने चिट्ठी में लिखा देखा पिता जी कहता था न देशी गाय में नहीं जर्सी में फायदा है| हमारी चिंता ना करना यहाँ हींग लगे न फिटकरी पर रंग चोखा ….| सविता मिश्रा