आत्मकथा : मुर्गे की तीसरी टांग (कड़ी 40 और अंतिम)
शाम तीन बजे मुझे पर्सनल विभाग में बुलाया गया था, वहाँ कई औपचारिकताएँ पूरी हो गयीं, लेकिन एक बात पर मामला अटक गया। समस्या यह थी कि मैं अपने साथ अपने विश्वविद्यालय के दो प्रोफेसरों के चरित्र प्रमाण पत्र लाया था, जबकि वे गजटेड आफीसरों द्वारा दिये गये चरित्र प्रमाण पत्र चाहते थे। मैं न तो आगरा में, न दिल्ली में और न लखनऊ में किसी गजटेड आफीसर को जानता था। फिर भी मैंने कहा कि मैं कोशिश करूँगा। और मुझे एक-दो दिन का समय दिया जाय। उन्होंने सहर्ष मुझे समय दे दिया। तब मैंने श्री त्रिपाठी को अपनी समस्या बतायी। उस समय तक साढ़े चार बज गये थे और श्री त्रिपाठी चलने की तैयारी में ही थे। चलते-चलते उन्होंने कहा कि कोई चिन्ता मत करो और कल सुबह हम प्रमाण-पत्र बनवा देंगे।
मैं कुछ संतुष्ट हुआ और कुछ आशंकित भी। फिर भी मैं श्री त्रिपाठी पर विश्वास रखकर घर चला गया। अगले दिन प्रातः 9 बजे श्री त्रिपाठी मुझे लेकर एच.ए.एल. में ही कार्यरत सुरक्षा मंत्रालय के दो वैज्ञानिकों के पास गये और आवश्यक चरित्र प्रमाण पत्र बनवा दिये। श्री त्रिपाठी का इतना प्रभाव देखकर मुझे बहुत आश्चर्य हुआ। मेरी खुशी की सीमा नहीं थी। अब सारी औपचारिकताएं पूरी हो चुकी थी।
जिस दिन मैं औपचारिक रूप से आफीसर बना उस दिन तारीख थी 2 जून, 1983 अर्थात ठीक 12 दिन पहले तक तिहाड़ जेल में बंद एक खतरनाक कैदी, जो सरकार की दृष्टि में डकैत, अपहरणकर्ता, हत्यारा, दंगाई, आवारा और न जाने क्या-क्या था, उसी सरकार के एक महत्वपूर्ण संस्थान में एक जिम्मेदार अधिकारी बन चुका था।
उस समय मुझे अपने बचपन की एक घटना याद आ रही थी। तब मैं कक्षा 7 का विद्यार्थी था और गर्मियों की छुट्टियों में अपनी छोटी बुआ के घर नाई की मंडी, आगरा आया हुआ था। एक दिन एक भिखारी आया, तो बुआ ने एक कटोरी में आटा देकर मुझे उसे देने के लिए भेजा। मैंने आटा भिखारी की झोली में डाल दिया और लौटने लगा। उसने मुझमें जाने क्या देखा कि मुझे रोककर हाथ दिखाने के लिए कहा। मैंने फौरन दायाँ हाथ आगे बढ़ा दिया। उसने कुछ क्षण तक मेरा हाथ देखा और बिना कुछ कहे जाने लगा, तो मैंने उससे पूछ लिया- ‘क्या बनूँगा?’ उसने कहा- ‘अफसर बनेगा।’ और यह कहकर वह चला गया। मैंने सोचा कि यह सही-सही जानता नहीं होगा कि अफसर क्या होता है। बाबू, थानेदार, अध्यापक, कलक्टर सभी को अफसर ही कहता होगा। मैं इनमें से कुछ तो बन ही जाऊँगा। लेकिन आज मुझे समझ में आया कि वह भिखारी कितना सही था। मैं चाहते हुए भी न तो इंजीनियर बना, न प्रोफेसर बना, न साहित्यकार बना, न सम्पादक बना, न बाबू बना, बना केवल अफसर।
लेकिन एक मामूली सी बात पर गाड़ी फिर अटक गयी। बात यह थी कि मेरे एक प्रमाणपत्र या मार्कशीट में मेरा नाम ‘विजय कुमार सिंघल’ लिखा हुआ था, जबकि अन्य सभी कागजों पर मेरा नाम ‘विजय कुमार’ था। अब वे क्लर्क रूपी सज्जन ये चाहते थे कि मैं एक अदालती शपथ-पत्र (एफीडेविट) बनवाकर लाऊँ कि ‘विजय कुमार’ और ‘विजय कुमार सिंघल’ एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं। इस सब में मेरे 20-25 रुपये और तीन चार घंटे खराब हो गये। तब तक (और उस दिन के अलावा आज तक भी) मैं कभी किसी अदालत में नहीं गया था। लेकिन इस काम के लिए मुझे अकेले ही लखनऊ के केसरबाग में कलक्टरी कचहरी पर जाना पड़ा। वहीं बाहर ही एक वकील साहब समझ गये कि शिकार आ गया। उन्होंने मुझसे 18 रुपये छीन लिये और शपथपत्र बना दिया।
वहां से जान बचाकर मैं भागा और वह शपथ पत्र लाकर क्लर्क को पकड़ा दिया। उस दिन से मैंने गांठ बांध ली कि किसी भी सरकारी कागज पर अपने नाम में सिंघल नहीं लगाना है। कहावत है कि चाय का जला लस्सी भी फूंक-फूंक कर पीता है। तब से मैं अपने हस्ताक्षर भी ‘विजय कुमार’ करता हूँ। सभी सरकारी कागजों पर ही नहीं, बैंकों तक में मैं ‘विजय कुमार’ हूँ। यद्यपि मेरे साथी मुझे ‘सिंघल’ कह कर पुकारा करते हैं और कई बार मेरे विभाग के मैनेजर भी मेरे नाम में सिंघल लगा जाते हैं।
उस विभाग जिसे कागजों पर ई.डी.पी. सैक्शन और आम बोलचाल में ‘कम्प्यूटर सेन्टर’ कहते हैं, में मेरी जिन्दगी कैसी गुजरी यह बात इस भाग की विषय वस्तु से बाहर है। उसका जिक्र मैं अपनी आत्मकथा के अगले भाग में करूँगा। यहाँ अन्य महत्वपूर्ण बातों का जिक्र करना आवश्यक है।
जैसा कि मैं बता चुका हूँ, जवाहरलाल नेहरू वि.वि. मैंने पूरी तरह छोड़ दिया था, लेकिन मेरा काफी सामान वहाँ पड़ा हुआ था। मैं जुलाई के अन्तिम सप्ताह में वहाँ गया। तब तक मेरे कमरे का ताला तोड़ा जा चुका था और सारे छोटे-मोटे सामान के साथ ताला भी फेंका जा चुका था। लेकिन जो चीजें मैं गट्ठरों में बाँधकर स्टोर रूम में रखवा आया था, वे सुरक्षित थीं। मैंने वह सारा सामान इकट्ठा किया और कई बार में उठाकर अपने मित्र श्री रजनीश चन्द्र श्रीवास्तव के कमरे में ले गया। वहाँ मैंने ज्यादातर किताबें बाँध कर रख दीं तथा अन्य सामान आगरा ले जाने को तैयार हो गया। उनमें मेरा बिस्तर भी था। काफी मुश्किल के साथ मैं आगरा पहुँच सका। सामान जरूरत से ज्यादा होना भी एक समस्या थी।
अगली बार मैं अक्टूबर में फिर ज.ने.वि. आया और अपनी एम.फिल. की मौखिक परीक्षा की तारीख तय कराने की कोशिश की। वह तारीख 18 दिसम्बर तय की गयी। मैं दो-तीन दिन पहले ही दिल्ली पहुँच गया और अपना प्रोग्राम पूरा करने की कोशिश की। लेकिन दो दिन में यह सब होना संभव नहीं था, अतः मैं उसी प्रोग्राम की लिस्ट लेकर मौखिक परीक्षा में जाने को तैयार हो गया। मुझे वहीं कुछ स्लाइड बनाने पड़े। मैंने पहले भी कई बार सेमिनार वगैरह दिये थे, लेकिन एम.फिल. की मौखिक परीक्षा के समय मैं काफी आशंकित था। मेरा हृदय जोर-जोर से धड़क रहा था।
मेरे मित्र श्री रामनरेश सिंह ने मेरी हालत जानकर मुझे डाँटा भी कि मैं क्यों घबरा रहा हूँ। खैर! जैसे ही मेरा वायवा शुरू हुआ, मेरी घबराहट कम होती गयी और 5-10 मिनट में ही मैं पूरी तरह सामान्य हो गया। मेरा सेमिनार काफी अच्छा रहा। मुझसे अन्य छात्रों ने तथा मेरे परीक्षक हैदराबाद के प्रो. पी.जी. रेड्डी ने कई प्रश्न पूछे, जिनका मैंने संतोषजनक उत्तर दिया। मेरे गाइड डा. सदानन्द भी वहीं बैठे हुए थे। उन्होंने मेरा हौसला बढ़ाया। मेरी मौखिक परीक्षा काफी अच्छी रही। मैं बहुत खुश और संतुष्ट था। मेरी घबराहट गायब हो गयी थी। मुझे विश्वास था कि मुझे डिजर्टेशन में ग्रेड ए+ नहीं तो ए तो मिल ही जायेगा।
मैं उसी समय अपने होस्टल चला गया। वहाँ मैंने एक कमरा दो तीन दिनों के लिए ले लिया था। मैं लेटा हुआ कोई पत्रिका पढ़ रहा था। अन्य बातों की तरफ से मैं निश्चिन्त था। लगभग शाम को सात बजे मेरे मित्र राम नरेश सिंह एक अन्य मित्र अरुण प्रसाद के साथ मेरे कमरे में आये और आते ही मेरे गालों पर तमाचे मारने शुरू किये। मैं चकराया कि क्या बात है। उन्होंने बताया कि मुझे ए+ दिया गया है। मुझे पहले विश्वास नहीं आया, लेकिन राम नरेश सिंह की बात पर अविश्वास करने का भी कोई कारण नहीं था। मेरी खुशी की कोई सीमा नहीं थी।
उस समय मैंने अपनी जिन्दगी में पहली बार ईश्वर को सच्चे मन से धन्यवाद दिया। मैंने एक बार फिर अनुभव कर लिया था कि मेहनत का फल हमेशा मीठा होता है, यद्यपि उसके पकने में देर लग सकती है। अब मैं अपनी कक्षा में सबसे आगे था। मैंने राम नरेश सिंह तथा अरुण प्रसाद को बाहर ले जाकर उनका मुँह मीठा कराया। इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सका।
मैं लखनऊ से सीधा दिल्ली गया था। अतः अगले दिन प्रातःकाल मैं आगरा अपने परिवार के बीच आ गया। अब मैं किसी विश्वविद्यालय या कालेज का छात्र नहीं था, बल्कि एक जिम्मेदार सरकारी अधिकारी था। यद्यपि मेरा बचपन अभी भी मुझमें विद्यमान था। अपनी भतीजियों के साथ खेलते-कूदते और ऊधम करते हुए मुझे कोई झिझक महसूस नहीं होती थी। कई बार मेरी इच्छा होती थी कि मैं एक दुधमुँहे बच्चे की तरह मम्मी की गोद में दुबक कर सो जाऊँ।
यह है मेरे छात्र जीवन का वृत्तान्त। मेरे जीवन का एक अध्याय पूरा हुआ, जिसे मैं अपनी जिन्दगी का प्रातःकाल मानता हूँ। इस जिन्दगी की आगे की कहानी मैं फिर कभी लिखूँगा, यदि ईश्वर की इच्छा हुई।
इति शुभम्।
(पहला भाग समाप्त)
(पादटीप : इस आत्मकथा का अगला भाग भी लिखा हुआ रखा है. यदि पाठक बंधुओं की आज्ञा हुई तो उसे भी प्रस्तुत करूँगा. वह भी बहुत रोचक और प्रेरक है.)
विजय जी बहुत सुंदर प्रस्तुति और रोचक जीवन संघर्ष ..बिलकुल अगले अध्याय का इंतज़ार रहेगा !…शुभकामनाएँ
धन्यवाद, बंधु। अगला भाग मैं तत्काल प्रारम्भ कर रहा हूँ।
विजय भाई, पहले तो यह अंग्रेज़ी वालों की बात लिखूं ,ALL IS WELL THAT ENDS WELL. पड़ा करता था रिशिओं मुनिओं के बारे में कि फलां ऋषि ने जंगलों में घोर तपस्या की. आप की भी यह तपस्य ही थी जो सामने आ कर किसी देवता ने कहा , बेटा तुमारी तपस्य से बहुत पर्सन हुआ हूँ , जो मांगोगे मिलेगा. अब आप उस तपस्य का मीठा फल खा रहे हैं. आप की कठिन और जदोजहद भरी जिंदगी को सलाम.
बहुत बहुत धन्यवाद, भाई साहब. मेरी सफलता में गुरुजनों का आशीर्वाद भी एक बड़ा कारण है. अब आत्मकथा का अगला भाग शुरू करूँगा.
अंत भला तो सब भला .. सारी समस्याओं के बावजूद होसलों की जंग जीती .. संघर्ष के बाद का सुकून अनूठा होता है ..आप अफसर बने बधाई
बहुत बहुत धन्यवाद, आशा जी.
आपका विद्यार्थी जीवन संघर्ष पूर्ण, अनुभवपूर्ण अवं उपलब्धियों से पूर्ण रहा। नीव मजबूत है। आगे भवन भी सुखदायी होने की आशा है। आप अगला भाग अवश्य लिखे। इससे हमें भी ज्ञान वा दिशा मिलेगी।
प्रणाम मान्यवर. आभार ! अगले दो भाग लिखे हुए रखे हैं. आपके आदेश से अब दूसरे भाग को प्रस्तुत करूँगा.
इस सौजन्य के लिए मैं आभारी एवं कृतज्ञ हूँ।