आत्मकथा : दो नम्बर का आदमी (कड़ी 1)
प्राक्कथन
जड़ चेतन गुन दोषमय विश्व कीन्ह करतार।
संत हंस गुन गहहिं पय परिहरि वारि विकार।।
सियाराम मय सब जग जानी। करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी।।
कुछ समय पूर्व ही मैंने अपने विद्यार्थी जीवन की कहानी ‘मुर्गे की तीसरी टाँग’ उर्फ ‘सुबह का सफर’ लिखकर समाप्त की है। मेरे कई मित्रों और सहकारियों ने इसे पढ़ा और पसन्द किया है, हालांकि वह अभी तक अप्रकाशित ही है। फिर भी उसकी सफलता से प्रोत्साहित होकर मैं अपने विद्यार्थी जीवन से आगे की कहानी लिखने का साहस कर रहा हूँ।
हालांकि यह कहानी मेरी अपनी है और किसी अन्य की कहानी बताना इसका उद्देश्य नहीं है, फिर भी इसमें मैंने अपने उन कई सहयोगियों के गुण और अवगुणों की चर्चा आवश्यकता के अनुसार की है, जिनके साथ मेरा समय गुजरा है। प्रशंसा के साथ ही कई लोगों की मुझे आलोचना भी करनी पड़ी है, परन्तु मुझे इस बात का कोई खेद नहीं है और न मैं इसके लिए उनसे कोई क्षमायाचना करना चाहता हूँ। सत्य और असत्य का यथार्थ निरूपण करना ही मेरा उद्देश्य है। हाँ, यदि कोई सज्जन मेरे कथन या प्रस्तुतीकरण में कोई तथ्यात्मक भूल बताने की कृपा करेंगे, तो उसे सुधारने के लिए मैं सदा तैयार रहूँगा। मैं स्वामी दयानन्द सरस्वती जी महाराज के इस उपदेश का पालन करता हूँ कि सत्य को ग्रहण करने और असत्य को छोड़ने के लिए सर्वदा तैयार रहना चाहिए।
आत्मकथा के इस भाग के लिए भी मैंने एक विलक्षण शीर्षक पसन्द किया है- ‘दो नम्बर का आदमी’। इस शीर्षक के शब्द कहाँ से आये, इसकी कहानी यह है कि एक बार हमारे गाँव के एक आदमी ने मेरे ऊपर टिप्पणी की थी कि तुम दो नम्बर के आदमी हो। मैंने उससे पूछा था कि इसका क्या अर्थ है, तो उसने बताया कि तुम वह नहीं हो जो दिखाई पड़ते हो। मुझे लगता है कि उसकी बात में सत्य का बहुत बड़ा अंश है। कई लोग जो पहली बार मुझे देखते हैं तो कुछ का कुछ समझ लेते हैं और जब निकट आते हैं और मेरे बहुआयामी व्यक्तित्व और कृतित्व के बारे में जानते हैं तो एकदम आश्चर्य में पड़ जाते हैं। वैसे इस शीर्षक का अर्थ नकारात्मक भी हो सकता है। परन्तु मैं इसे सकारात्मक मानकर ही उपयोग कर रहा हूँ। यदि कोई सज्जन इसके नकारात्मक अर्थ को मेरे ऊपर अधिक सटीक पाते हों तो भी मुझे कोई आपत्ति नहीं है।
इसके साथ ही मैं अपने मित्र श्री रमेश चन्द राणा (फौजी) द्वारा सुझाये गये शीर्षक ‘आ ही गया बसन्त’ का भी उपयोग कर रहा हूँ। यह शीर्षक वास्तव में उन्होंने मेरी आत्मकथा के पहले भाग के लिए सुझाया था। परन्तु मैं समझता हूँ कि यह इस दूसरे भाग के लिए कहीं अधिक उपयुक्त है, क्योंकि मेरा अधिकारी जीवन मेरी अनेक सफलताओं का साक्षी रहा है।
अपनी आत्मकथा का पहला भाग मैंने अध्यायों में बाँटकर लिखा था। लेकिन इस भाग को मैं उपन्यास शैली में लिख रहा हूँ। इससे इसकी रोचकता बनी रहती है।
मेरा यह दूसरा प्रयास कैसा बना है, इसकी परख आप पाठकों को ही करनी है। अस्तु।
– विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’
पादटीप-
आत्मकथा का यह दूसरा भाग मेरी सन् 1983 से सन् 1995 तक की अवधि की कहानी है और इसको लिखना सन् 2000 में तब प्रारम्भ किया गया था, जब मैं इलाहाबाद बैंक के मंडलीय कार्यालय, कानपुर में वरिष्ठ प्रबंधक (कम्प्यूटर) के रूप में सेवा कर रहा था। यह भाग सन् 2005 में तब जाकर पूरा हुआ, जब मैं पंचकूला में स्थानांतरित हो गया था। तब से अब तक बहुत सी जानकारियाँ पुरानी हो गयी हैं तथा नयी जोड़ने की आवश्यकता प्रतीत होती है। इसलिए इस भाग को यथा सम्भव सुधार कर छपवा रहा हूँ। आवश्यक होने पर यथा स्थान पादटीप भी दे रहा हूँ।
विजय भाई , शुरू हो जाइए , हम सरोता तैयार हैं.
धन्यवाद, भाई साहब. शुरू हो गया मैं.
जी स्वागत है “दो नम्बर का आदमी” का …..
आभार, प्रियवर !
आपकी आत्मकथा के दूसरे भाग की पहली कडी पढ़कर सुकून की अनुभूति हो रही है। नया ज्ञान जब भी प्राप्त होता है वह प्रिय होता है। आचार्य बृहस्पति शास्त्री किसी गुरकुल के कुलाधिपति रहें। वह डॉ. सम्पूर्णानन्द जी, मुख्य मंत्री, उत्तर प्रदेश के गुरु भी रहे हैं। उन्होंने एक बार हमारे एक मित्र (श्री तरुण विजय, सांसद) के प्रवासी अग्रज भाई श्री कुमार राजेंद्र को महर्षि दयानंद के ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश आदि भेंट करते हुए कहा था कि यह मात्र ग्रन्थ या पुस्तके नहीं है यह साक्षात महर्षि दयानंद हैं। योग दर्शन में भी आता है की जब मनुष्य जिस विषय का अध्ययन करता है तो उसका उस विषय वा देवता से संयोग वा जुड़ना – मिलना होता है। आपकी आत्मकथा से भी हम आपसे जुड़ गए है। इसे पढ़कर होने वाले अनुभवों से तृप्ति अनुभूति होती है। हार्दिक धन्यवाद।
मान्यवर, आपके उद्गारों के लिए ‘धन्यवाद’ शब्द बहुत छोटा है. विनम्र प्रणाम !