ग़ज़ल : ज़ुल्मत भी हुई है शर्मसार
आओ ए इख़लाक़ वालो मिल के रोयें ज़ार ज़ार,
जज़्बा-ए-ग़ैरत हुई है आज अर्थी पे सवार।
टूट कर बिखरी है चूड़ी और पायल रो रही,
ख़ाक में लिपटे हैं गेसू और रिदा है तार तार।
चार सू क़ातिल खड़े हैं, पुरख़तर हर राह,
हैजुर्म ऐसा सुन के ज़ुल्मत भी हुई है शर्मसार।
नाकसों की हर तरफ़ सौलत है अब फैली हुई,
ज़ुल्म ऐसा देख कर है अर्श भी अब अश्कबार।
गोशे गोशे में है छाया आज इक कहर-ओ-गज़ब,
बाज़ है बेख़ौफ़ अब करने को बुलबुल का शिकार।
हो रही वहशत रवां अब जुर्म इज़्ने.अब्न है,
कैसे कोयल गायेगी सावन में नग़मा-ए-मल्हार।
‘प्रेम’ की गलियां तो अब ख़ामोश हैं वीरान हैं,
अब न सतरंगी फुहारें ले के आएगी बहार।।
दिल्ली के गैंग रेप की शिकार “दामिनी” के इन्तिकाल के दिन लिखी यह ग़ज़ल..
ग़ज़ल नहीं मेरे दिल की चीख़ है ..पर कहाँ रुका है ये सिलसिला? चलता ही जा रहा है।
1 इख़लाक़ = नैतिकता, 2 जज़्बा-ए-ग़ैरत =स्वभिमान की भावना, 3गेसू =बाल, 4 रिदा= दुपट्टा, 5 गोशे गोशे= कोने कोने में, 6 नाकस = नीच, 7 सौलत=आतंक, 8 कहर-ओ-गज़ब = भयंकर अत्याचार, 9 इज़्ने.अब्न= सरे आम
बहुत खूबसूरत ग़ज़ल !