कविता

आलम

बदनसीबी का आलम
जब-जब मचलकर
मेरे होठों पर आना चाहता है
आहें भरकर भी
उस आलम को
होठों में दबा लेती हूं मैं

बेबसी का सावन
जब-जब मचलकर
मेरी आंखों से बहना चाहता है
रो रोकर भी
उस सावन को
आंखों में बसा लेती हूं मैं

यादों का दर्द
जब-जब तड़पकर
मेरे दिल में धड़कना चाहता है
तड़प तड़पकर भी
उस दर्द को दिल में
छुपा लेती हूं मैं

जिंदगी का सफर
जब-जब रूठकर
मौत के करीब जाना चाहता है
जिंदगी से रूठकर भी
उस सफर को
फिर से मना लेती हूं मैं…

प्रीति सुराना

One thought on “आलम

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत खूबसूरत कविता !

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