मैं एक किताब हूँ
मैं एक किताब हूँ
तुम अपनी नरम उँगलियों से
मेरे पन्नें पलटते हो
किसी पृष्ठ के कोने को मोड़ देते हो
अपने सिरहाने में रखकर
बेफिक्र हो ,
गहरी नींद में चले जाते हो
तुम चाहते हो
मुझमे छपी कवितायें कभी खत्म ही न हो
आमुख पर छपे मेरे नाम को चूम लेते हो
तुम्हारा एकांत मेरे शब्दों से मन्त्र मुग्ध हो उठता है
तुम मुझसे सम्मोहित हो जाते हो
मैं न ख़्वाब हूँ
न ही ख्याल हूँ
सिर्फ एक किताब हूँ
बंद नेत्रों से
मेरी किसी न किसी कविता को
पढ़ते रहते हो
सही मायने में
मैं तुम्हारे जीवन का हमसफ़र हूँ
एक मित्र हूँ
मेरे द्वारा दिए गुलाब को तुमने
मेरे भीतर छुपा रखा है
किशोर कुमार खोरेन्द्र