आत्मकथा

आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 2)

अपनी आत्मकथा के पहले भाग ‘मुर्गे की तीसरी टाँग उर्फ सुबह का सफर’ में मैं लिख चुका हूँ कि किस प्रकार बड़ी मुश्किल से मेडीकल में पास होने के बाद मुझे हिन्दुस्तान ऐरोनाॅटिक्स लि. लखनऊ में कम्प्यूटर विभाग के एक अफसर के रूप में नौकरी प्रारम्भ करने की अनुमति मिली थी। यह समस्या हल होने के बाद मुझे अपने निवास का स्थायी प्रबंध करना था। अभी तक मैं अपने मित्र श्री दिवाकर खरे के भाई श्री प्रभाकर खरे के साथ ही रह रहा था, जो बैंक आॅफ इंडिया में सेवा करते थे।

मैंने अपने लिए कोई कमरा ढूँढ़ने का प्रयास किया, परन्तु असफल रहा। प्रभाकर जी के यहाँ रहते हुए मुझे 20-25 दिन हो गये थे, इसलिए मैं चिन्तित था। कोई और व्यवस्था न होने पर मैं पास में ही स्थित शर्मा होटल में रहने चला गया। वहाँ एक छोटे से कमरे में मुझे एक अन्य लड़के के साथ रखा गया, जो शायद इंटर में पढ़ रहा था। वहाँ नहाने-धोने की व्यवस्था अच्छी नहीं थी। तभी सौभाग्य से आगरा के एक सज्जन श्री मदन मोहन वर्मा से मेरा परिचय प्रभाकर जी के माध्यम से हुआ। उन्होंने एक-दो दिन में ही मेरे लिए एक कमरा किराये पर ले दिया और मैं उसमें आ गया।

यहाँ लखनऊ के बारे में बताना अच्छा रहेगा। यह एक बहुत प्राचीन नगर है, जिसे राम के भाई लक्ष्मण द्वारा बसाया गया माना जाता है। वैसे यह अपनी नवाबी शानो-शौकत के लिए विख्यात रहा है। मुसलमान बादशाहों और अंग्रेजों के जमाने में यहाँ नवाब राज्य किया करते थे। वे सभी शान से रहते थे और गरीब जनता की गाढ़ी कमाई अपने ऐशो-आराम पर खर्च किया करते थे। कहा जाता है कि उनके द्वारा कई भवन बनवाये गये हैं, परन्तु ऐसा लगता है कि उन्होंने पहले से बने हुए भवनों पर कब्जा करके उनके मनमाने नाम रख दिये और अपने द्वारा बनवाये गये प्रचारित कर दिया। बहुत से ऐसे भवन हैं जिनमें बनी बहुत सी जगहों का कोई स्पष्टीकरण इतिहासकारों के पास नहीं है कि वे क्यों बनायी गयीं।

लखनऊ उत्तर प्रदेश की राजधानी है और कुल मिलाकर एक अच्छा शहर है। यह काफी विस्तृत भाग में फैला हुआ है। इसमें दो प्रमुख फैक्टरियाँ शहर के एक-एक छोर पर बनी हुई हैं। दक्षिणी-पश्चिमी छोर पर (कानपुर रोड पर) स्कूटर्स इंडिया लि. की फैक्टरी है और पूर्वी छोर पर (फैजाबाद रोड पर) हिन्दुस्तान ऐरोनाॅटिक्स लि. की फैक्टरी है। दोनों फैक्टरियों में हजारों लोग कार्य करते हैं। मैंने हिन्दुस्तान ऐरोनाॅटिक्स लि., जिसे संक्षेप में एच.ए.एल. और बहुत से लोग बोलचाल में ‘हाल’ कहते हैं, में अपनी सेवा प्रारम्भ की थी।

एच.ए.एल. के सामने ही फैजाबाद रोड के दूसरी ओर एक नई कालोनी बसायी गयी है, जिसे ‘इन्दिरा नगर’ कहते हैं। वास्तव में इस कालोनी के लिए जमीनों का अधिग्रहण आपातस्थिति के दिनों में किया गया था और उसके बाद ही मकान बनना प्रारम्भ हुआ। मकान बनाने और बेचने की जिम्मेदारी उ.प्र. आवास एवं विकास परिषद को दी गयी थी। 1977 में जब जनता पार्टी की सरकार आयी, तो इस कालोनी का नाम वहीं के एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी के नाम पर ‘रामसागर मिश्र नगर’ रखा गया और इसके लिए एक शिलापट्ट भी लगाया गया था, जो अभी भी लगा हुआ है। प्रारम्भ में यही नाम प्रसिद्ध हुआ और आज भी वहाँ के डाकघर और कुछ बैंकों की शाखाओं का नाम रामसागर मिश्र नगर ही है। परन्तु 1980 में जब जनता पार्टी की सरकार गयी और इन्दिरा गाँधी की सरकार आयी, तो उ.प्र. की कांग्रेस सरकार ने इसका नाम बदलकर ‘इन्दिरा नगर’ कर दिया। तब से यही नाम चला आ रहा है। लेकिन बहुत से घोर कांग्रेस-विरोधी लोग, जिनमें मैं भी शामिल हूँ, लम्बे समय तक ‘रामसागर मिश्र नगर’ नाम का उपयोग करते रहे। अब धीरे-धीरे लोगों के दिमाग से यह नाम उतर गया है और ‘इन्दिरा नगर’ ही चल रहा है।

जून 1983 में, जब मैंने एच.ए.एल. में सेवा प्रारम्भ की थी, इन्दिरा नगर का विस्तार फैजाबाद रोड के बायें किनारे पर मजार नामक स्थान, जहाँ आजकल लेखराज मार्केट है, से लेकर राजकीय पाॅलीटैक्निक से कुछ पहले तक ही था। टैम्पो निशातगंज चैराहे से प्रारम्भ होते थे और भूतनाथ मार्केट के सामने से निकलते हुए सी-ब्लाॅक चैराहे पर जाकर रुक जाते थे। इन्दिरा नगर का केन्द्र स्थान भूतनाथ मंदिर है, जहाँ एक अच्छा मार्केट बना हुआ है। प्रारम्भ में यह बाजार भी मन्दिर की बिल्डिंग में ही सीमित था, अब तो इसका दसों दिशाओं में बहुत विस्तार हो गया है। उस समय सब्जी मंडी सी-ब्लाॅक में एच.ए.एल. के सामने से शुरू होने वाली सड़क पर चर्च तक लगती थी। भूतनाथ मन्दिर और सब्जी मंडी के बीच का स्थान प्रायः खाली था, जहाँ अब मकानों और दुकानों की भरमार हो गयी है।

प्रारम्भ में इन्दिरा नगर ब्लाॅकों में बँटा हुआ था- ए-ब्लाॅक, बी-ब्लाॅक, सी-ब्लाॅक और कुछ दूर पर डी-ब्लाॅक, बस। इन ब्लाॅकों में मकानों पर नम्बर डालने की विधि बहुत टेढ़ी है। इसमें विषम संख्याओं वाले मकान नं. जैसे 1, 3, 5, 7… आदि एक स्थान पर हैं और सम संख्याओं वाले मकान नं. जैसे 2, 4, 6, 8… आदि वहाँ से काफी दूर दूसरे स्थान पर हैं। इससे नये आये हुए लोग बहुत परेशान हो जाते हैं। पहली बार जब मैंने कमरा लिया था, तो उससे एक दिन पहले मुझे ए-ब्लाॅक में श्री मदन मोहन वर्मा के घर जाना था। इन नम्बरों के चक्कर में मैं स्वयं बहुत परेशान हो गया था और लगभग 1 घंटा भटकने के बाद ही उनके घर तक पहुँच पाया था। मैंने जो कमरा लिया था, वैसे तो बहुत अच्छा था, किराया भी सही था और मकान मालिक भी बहुत अच्छे थे, परन्तु वह एच.ए.एल. से काफी दूर था और वहाँ कोई बाजार भी नहीं था। दोपहर का भोजन तो मैं एच.ए.एल. की कैंटीन में कर लेता था, लेकिन रात्रि का भोजन करने के लिए मुझे एच.ए.एल. के सामने वाले मार्केट तक आना पड़ता था। इससे मैं काफी परेशान हो गया था और कमरा बदलने के बारे में सोच रहा था। मेरे पास उस समय भी कोई वाहन नहीं था।

सौभाग्य से मुझे भूतनाथ मंदिर के निकट ही एक बंगाली डा. सिन्हाराय की कोठी में एक कमरा मिल गया। उसका किराया रु. 250 था, जो उस समय के अनुसार काफी अधिक था, परन्तु वह हम दो अधिकारियों ने मिलकर लिया था, इसलिए किराया सहन किया जा सकता था। दूसरे अधिकारी थे श्री गौरी शंकर दास, जो बंगाली थे। हम लगभग 2 माह उसी कमरे में रहे।

हम दोनों बाहर खाना खाते-खाते ऊब गये थे और अब घर का बना हुआ खाना खाना चाहते थे। इसलिए मेरा विचार स्वयं खाना बनाने का हुआ। दास बाबू की व्यवस्था भी उनके बंगाली साथियों के साथ हो गयी थी। इसलिए हमने वह कमरा छोड़ दिया। मैंने लगभग 150 रु. महीने के किराये पर ए-ब्लाॅक में श्री मदन मोहन वर्मा के घर के निकट ही एक कमरा और रसोईघर वाला छोटा सा स्थान ले लिया। यह कमरा हालांकि बहुत अच्छा नहीं था, वहाँ धूप बिल्कुल नहीं आती थी, परन्तु अकेले रहने के लिए पर्याप्त था। सबसे बड़ी बात यह थी कि वहाँ श्री वर्मा और उनके साथी श्री योगेन्द्र कुमार शर्मा, श्री विजय कुमार सिंह तथा श्री देवेन्द्र कुमार जैन पास-पास के मकानों में रहते थे, जो सभी आगरा के ही थे। इसलिए मैं भी वहाँ आनन्दपूर्वक रहने लगा।

शीघ्र ही आगरा जाकर मैं एक मिट्टी के तेल का स्टोव और खाना बनाने के आवश्यक बर्तन ले आया और अपना रात्रि का भोजन स्वयं बनाना प्रारम्भ कर दिया। शुरू में खाना अच्छा नहीं बनता था, लेकिन एक-दो सप्ताह में ही मैं ठीक-ठाक खाना बनाने लगा। दूध भी लेना प्रारम्भ कर दिया था। वहाँ से एच.ए.एल. लगभग एक मील (डेढ़ किमी) दूर है, परन्तु मैं पैदल ही आता-जाता था। पैदल चलना मेरे लिए कभी कोई समस्या नहीं रही। यह मेरा शौक भी है। इससे मुझे दो लाभ होते हैं- पहला लाभ तो यह है कि इससे मेरा स्वास्थ्य ठीक रहता है और दूसरा लाभ यह है कि समय की भी बचत होती है, क्योंकि कई बार वाहन का इन्तजार करने में ही बहुत समय नष्ट हो जाता है। पैदल चलने की जो आदत मैंने बचपन से बना रखी है वह आज तक लाभ दे रही है और मैं 10-15 किमी तक तो बहुत आसानी से पैदल चल लेता हूँ।

(जारी…)

डॉ. विजय कुमार सिंघल

नाम - डाॅ विजय कुमार सिंघल ‘अंजान’ जन्म तिथि - 27 अक्तूबर, 1959 जन्म स्थान - गाँव - दघेंटा, विकास खंड - बल्देव, जिला - मथुरा (उ.प्र.) पिता - स्व. श्री छेदा लाल अग्रवाल माता - स्व. श्रीमती शीला देवी पितामह - स्व. श्री चिन्तामणि जी सिंघल ज्येष्ठ पितामह - स्व. स्वामी शंकरानन्द सरस्वती जी महाराज शिक्षा - एम.स्टेट., एम.फिल. (कम्प्यूटर विज्ञान), सीएआईआईबी पुरस्कार - जापान के एक सरकारी संस्थान द्वारा कम्प्यूटरीकरण विषय पर आयोजित विश्व-स्तरीय निबंध प्रतियोगिता में विजयी होने पर पुरस्कार ग्रहण करने हेतु जापान यात्रा, जहाँ गोल्ड कप द्वारा सम्मानित। इसके अतिरिक्त अनेक निबंध प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत। आजीविका - इलाहाबाद बैंक, डीआरएस, मंडलीय कार्यालय, लखनऊ में मुख्य प्रबंधक (सूचना प्रौद्योगिकी) के पद से अवकाशप्राप्त। लेखन - कम्प्यूटर से सम्बंधित विषयों पर 80 पुस्तकें लिखित, जिनमें से 75 प्रकाशित। अन्य प्रकाशित पुस्तकें- वैदिक गीता, सरस भजन संग्रह, स्वास्थ्य रहस्य। अनेक लेख, कविताएँ, कहानियाँ, व्यंग्य, कार्टून आदि यत्र-तत्र प्रकाशित। महाभारत पर आधारित लघु उपन्यास ‘शान्तिदूत’ वेबसाइट पर प्रकाशित। आत्मकथा - प्रथम भाग (मुर्गे की तीसरी टाँग), द्वितीय भाग (दो नम्बर का आदमी) एवं तृतीय भाग (एक नजर पीछे की ओर) प्रकाशित। आत्मकथा का चतुर्थ भाग (महाशून्य की ओर) प्रकाशनाधीन। प्रकाशन- वेब पत्रिका ‘जय विजय’ मासिक का नियमित सम्पादन एवं प्रकाशन, वेबसाइट- www.jayvijay.co, ई-मेल: [email protected], प्राकृतिक चिकित्सक एवं योगाचार्य सम्पर्क सूत्र - 15, सरयू विहार फेज 2, निकट बसन्त विहार, कमला नगर, आगरा-282005 (उप्र), मो. 9919997596, ई-मेल- [email protected], [email protected]

12 thoughts on “आत्मकथा – दो नम्बर का आदमी (कड़ी 2)

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    विजय भाई, आप का सफ़र तो एजुकेशन ही एजुकेशन है, मेरा ऐसा तो नहीं था मगर फिर भी खुद खाना बनाने की बात की याद ताज़ा हो आई , जब हम नें भी फगवारे कमरा लिया था तो पहले तो रोटी ढाबे पे खाते थे फिर खुद बनाने की ठानी . इस के लिए घर से प्राइमस का मट्टी के तेल का स्टोव लाये , फिर पहले दिन हम ने आलू मटर बनाने शुरू किये . घर से घी लाये थे , तड़का लगाया और घी ज़िआदा डाला , सब कुछ ठीक ठीक हो गिया , फिर इंडिया के नक़्शे जैसी रोटीआं बनाई , लेकिन खाते वक्त इतना मज़ा आया कि हम सभी हँसते हँसते बहुत रोटीआं खा गए. बस उस दिन से शुरू हो कर आज तक खाना बनाना नहीं भूला . अब तो बात और है लेकिन मैं इतना माहिर हूँ खाना बनाने में कि बहुत इस्त्रीआन भी जानती नहीं होंगी . अब भी नई नई रेस्पी यूं तिऊब पर देख कर मिसज़ को बताता हूँ , और मज़े की बात यह कि मेरा बेटा भी खाना बनाने का बहुत शौक़ीन है. खुद खाना बनाने में एक ऐसा आनंद आता है जिस को बिआं करना असंभव है.

    • विजय कुमार सिंघल

      सही कहा भाईसाहब आपने. अपने हाथ का बना खाना खाने में बहुत आनंद आता है भले ही भारत या आस्ट्रेलिया का नक्शा बन जाये. वैसे आजकल भी कभी मैं अकेला होता हूँ तो अपने लिए तीन-चार रोटियों का आटा एक साथ लेकर एक मोटी रोटी बनाता हूँ. उसमें घी डालकर दाल के साथ खाने में दाल-बाटी का आनंद आता है.

  • कठिनाइयों का दौर आता ही और उस पर विजय कमर्ठ लोग ही पाते है …बढ़िया है …सादर नमस्ते

    • विजय कुमार सिंघल

      नमस्ते, बहिन जी. आभार.

  • Man Mohan Kumar Arya

    आपके जीवन की इस अध्याय में वर्णित घटनाओं को ध्यान से पढ़ा। आपको निवास एवं भोजन की समस्याओं से जूझना पड़ा और अंततः आपने उस पर विजय प्राप्त कर ली। आपने एक सप्ताह में ही भोजन बनाना सीख लिया, यह एक प्रशंसनीय उपलब्धि लगती है। आज की परिस्थियों में मुझे लगता है कि बाल्यकाल में ही माता पिताओं को अपने पुत्रो को भी भोजन विद्या की शिक्षा देनी चाहिय जिससे वह आवश्यकता होने पर यह कार्य भी कर सकें। घर के व स्वयं के बनाये भोजन में जो शुद्धता वा स्वाद होता है वह अन्यत्र होटल वा कैंटीन आदि के भोजन में नहीं मिल सकता। पूर्व की भांति ही यह कड़ी भी रोचक एवं स्वाभाविक घटनाओं से पूर्ण है। इस सुन्दर आत्मानुभवीय रचना के लिए धन्यवाद।

    • विजय कुमार सिंघल

      आभार मान्यवर ! आपका कहना सत्य है. किसी ने कहा है कि ‘जो व्यक्ति भोजन बनाना जनता है, वह कभी भूखा नहीं रह सकता.’ मैं इस कला में पारंगत तो नहीं, लेकिन फिर भी अच्छा हूँ. कभी श्रीमती जी के न होने पर या उनकी तबियत सही न होने पर मैं भोजन बना लेता हूँ.

      • Man Mohan Kumar Arya

        धन्यवाद जी। मैं भी बस चाय, चावल व चपाती आदि, वह भी अपने लिए, कामचलाऊ बना पाता हूँ क्योंकि जीवन में इसका अवसर नहीं मिला। तरकारी / सब्जी तो कभी नहीं बनाई। दाल बनाई तो नहीं परन्तु उसे पानी के साथ उबाल कर स्वयं सेवन योग्य बना सकता हूँ।

        • विजय कुमार सिंघल

          आवश्यकता आविष्कार की मम्मी है. जब आपको आवश्यकता होगी तो सब बना लेंगे.

    • विजय कुमार सिंघल

      बहुत बहुत धन्यवाद !

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    रोचक लगती है ….. पढ़ती हमेशा हूँ ….. टिप्पणी करना रह जाता है …. कभी संकोच वश

    • विजय कुमार सिंघल

      धन्यवाद! इसमें संकोच कैसा। जैसा लगा वैसा लिख दें तो काफ़ी है।

Comments are closed.