“हमारे चेहेरों की परछाईयाँ
तुम्हारे चेहेरे का प्रतिबिम्ब
सपनों की नदी में बहते हुए मेरे सपनों के तट तक पहुंचता हैं
उस चेहेरे कों मैं अपनी हथेली में रख कर गौर से निहारता हूँ
बिंदियां में रंग सा खुद कों भरा पाता हूँ
सीप जैसे …सुन्दर नयनों के भीतर स्वयं की तस्वीर कों जड़ा हुआ पाता हूँ
मुझे इतने समीप पाकर सपने में भी वह मुस्कुराने लगती है
और
उसके अधरों की दो पंखुरियां खिल जाती हैं
रेशम के धागों के सदृश्य उसके अलकों के महीन जाल में अपने ध्यान कों उलझा हुआ पाता हूँ
उसके गालो का स्पर्श पाते ही मेरी उंगलियाँ फिसल सी जाती हैं
हम दोनों महसूस करते हैं
कि –
हमारे चेहेरों की परछाईयाँ इसी तरह रोज रात कों
एक दूसरे की हथेलियों पर सर रख कर सोती हैं
किशोर कुमार खोरेन्द्र
बढ़िया !
thank u