उपन्यास : देवल देवी (कड़ी 28)
25. देवगिरी मेें चिंता
देवगिरी के महाराज रामदेव व्यग्र भाव से टहल रहे हैं, दोनों हाथ को बाँधकर पीठ पीछे कमर पर बाँधे हैं। युवराज शंकर देव कक्ष में प्रवेश करते हैं, राजा को व्यग्रता से टहलता देखकर खड़े हो जाते हैं। राजा टहलते हुए युवराज को देखते हैं, देखकर फिर टहलने लगते हैं। युवराज अपने स्थान पर खड़े ही कहता है ”प्रणाम महाराज, आपने मुझे स्मरण किया।“
”स्मरण! हाँ स्मरण ही करना पड़ेगा। जब राज्य के युवराज के पग सीमाएँ लाँघ रहे हों, उचित-अनुचित का भेद उनके ज्ञान की सीमा से बाहर की बात हो जाए। तो राज्य के हित के लिए महाराज को युवराज का स्मरण ही तो करना पड़ेगा।“
”तनिक स्पष्ट करें महाराज, कदाचित मैं आपका आशय नहीं समझा। मेरे किसी कार्य से राज्य का हित संकट में पड़ गया है, तनिक मैं भी तो जानूँ।“
”कदाचित का क्या अर्थ है युवराज, क्या तुम आशय समझकर न समझने का अभियान कर रहे हो। स्मरण रखो यदि राजा का अहित जान-बूझकर किया जाता रहा तो यह राज्याघात का अपराध है जिसके लिए उचित दंड का प्रावधान है।“
”अवश्य, अवश्य दंड दीजिए मुझे चाहे मुझसे राज्य का अहित भले ही न हुआ हो। पर हम यह भी जानना चाहेंगे, विदेशी आक्रांताओं के लिए महाराज के पास किसी दंड का प्रावधान है अथवा नहीं।“
”विदेशी आक्रांता को दंड? क्या युवराज उनका अपराध भी स्पष्ट करने की कृपा करेंगे, जिसके लिए उन्हें दंड दिया जाए।“
”क्या महाराज को उनके लिए अपराध ज्ञात नहीं? क्या गाँव के भोले-भाले किसानों के लहलहाते खेतों से उठती आग की लपटें किसी अपराध का संकेत नहीं करती? क्या देवालय का तोड़ा जाना अपराध नहीं? गोद में खेलते बच्चों की हत्या भी क्या अपराध नहीं? और हजारों-हजार ललनाओं को उठाकर शय्या-सहचरी के लिए दासी बना लेना भी संभवता महाराजा की दृष्टि में अपराध न हो। अब महाराज क्या तनिक मेरे अपराध को भी स्पष्ट करेंगे?“
”अपने राज्य से पलायन कर हमारी ही शरण में आए हुए राजा की गुर्जर कन्या से इस प्रकार आपकी प्रेम की पेंगें भी अपराध की श्रेणी में आती हैं।“
”ओह समझा, महाराज की दृष्टि में प्रेम भी अपराध है।“
”नहीं, हमारी दृष्टि में पे्रम अपराध नहीं है, पर देवलदेवी से आपका प्रेम करना अपराध है। उससे प्रेम करके युवराज अपने और राज्य के लिए संकट को निमंत्रण दे रहे हैं।“
”संकट? युवराज का प्रेम संकट को निमंत्रण? तनिक स्पष्ट करें महाराज।“
”स्मरण रखो देवलदेवी दिल्ली अधिपति की अभिलाषा है, वह उनसे बचती-बचाती भागती फिर रही है। कहीं ऐसा न हो दिल्ली के स्वामी का क्रोध, युवराज के लिए संकट उत्पन्न कर दे।“
”तो क्या, हम अपनी शरण में आई उस अबला को, कामुक सुल्तान को सौंप दें और हाथ जोड़कर सुल्तान से विनय करें, ‘लो दिल्लीपति अलाउद्दीन यह गुर्जर राजकुमारी है इसे अपने अंतःपुर ठीक उसी तरह क्रीत दासी के रूप में स्वीकार करो जैसे यादव राजकुमारी चंद्रिका को स्वीकार किया था।’?“
”युवराज“ राजा रामदेव तनिक आवेश से चीखभर कहते हैं, ”तुम अब अपनी मर्यादाएँ लाँघ रहे हो। देवगिरी के महाराज का अपमान कर रहे हो।“
”महाराज को मान-अपमान की उस दिन क्या कतई चिंता नहीं थी जब राजकुमारी चंद्रिका अश्रुपूर्ण आँखों से हमारी तरफ देखती हुई मुस्लिम सुल्तान के खेमे में गई? क्या महाराज का मान-सम्मान उस दिन भी सो रहा था जब राजकुमारी छिताई का सुल्तान ने जालिपा माई के मंदिर से अपहरण करने का प्रयास किया? वह तो अच्छा हुआ राजकुमारी के पति ने समय पहुँचकर उनकी रक्षा की। क्या महाराज का मान-सम्मान अब भी सुप्त है जब दिल्ली से आया सुल्तान का चित्रकार महल में राजकुमारी छिताई का चित्र बना रहा है? क्या इस चित्र बनाने का प्रयोजन भी महाराज को ज्ञात नहीं?“
”ओह पुत्र, बस करो। अब ओर अपनी तीक्ष्ण वाणी से हृदय छलनी मत करो। जाओ पुत्र मैं तुम्हें देवलदेवी से विवाह की अनुमति प्रदान करता हूँ। पर सावधान पुत्र! दिल्ली सल्तनत की विशाल सेनाओं से सावधान।“
”अवश्य पिताजी, शंकरदेव की तलवार दिल्ली की सेनाओं का मार्ग अवरूद्ध करने में सक्षम है। मैं राजकुमार भीमदेव को राजकुमारी देवलदेवी को लिवा लाने के लिए भेजता हूँ। आप महल मेें मंगल गान की तैयारी कीजिए।“
युवराज शंकरदेव, कक्ष से बाहर जाता है और महाराज रामदेव, ‘ईश्वर तुम्हारी रक्षा करे पुत्र’ कहते हुए हताशा में बैठ जाते हैं।
इस कड़ी से बहुत कुछ स्पष्ट होता है. पिता जहां अपनी जान बचाने के लिए अपनी पुत्रियों को भी इस्लामी आक्रान्ताओं को सौपने को तैयार हो जाता है, वहीँ उसका पुत्र अतातायियों का मुकाबला करने के लिए अपनी जान की बाज़ी लगा रहा है.
उपन्यास रोचक है.
ha sir, aesa dhora charitr bhartiya itihas me kai bar dekhne ko milta he..