घर घर घूम रहा हूँ
घर घर घूम रहा हूँ
मुठ्ठी भर याद मिले जो कहीं
हर क्षण कण में है राग हमारा
हर पल बीता है यहीं कहीं ।।
निठुर बना है वक्त अभी
हंसा किया करता था जो साथ कभी
फूल फूल हैं माली तोड़े
उपवन क्यों ओ उजाड़ रहे
निष्ठुर किए बगावत बगिया से
वे अपना हिय खुद फाड़ रहे ।।
सुख गया आँखों का आंसू
प्राणों पर अब भारी है
अन्यायी आरम्भ अंत की कठिन कहानी
आगे एकाकी रात हमारी है
पर सुनता कब है वक्त हमारी
वह निज चलता का अभिमानी ।।
लगे शाप उन शब्दों के ताने बाने को
कारण बन सकें कभी न
तुम्हें हमारी स्मृति में आने को
चाह यही हममे बाकी
जल जल तन मधु बन कर टपके
पियें बन कर हम साकी
देख देख वह फिर ताकी
है बची बचाई जो कुछ बाकी ।।
—सौरभ सिंह
बहुत खूब .