क्या प्राचीन आर्य जाति और ब्राह्मण एक ही थे?
भारत में कुछ लोग अपने को ” आर्य’ कहते है ,आर्य शब्द वे अपने नाम के साथ बड़े गर्व से लगाते हैं और बार बार यह दोहराते हैं की” सम्पूर्ण विश्व को आर्य बनाओ’ उनका कहना है की आर्य का अर्थ ” श्रेष्ठ” होता ।
पर्याय आर्य और ब्राहमण को एक ही समझा जाता है पर ऋग्वेद में आर्य के बारे में कुछ और ही जिक्र आता है । शायद ऋग्वेद आर्य और ब्राह्मणों को एक नहीं मानता देखिये कैसे –
ऋग्वेद के 6मंडल, सूक्त 33, मन्त्र 3 यह मन्त्र कहता है – त्व तान इंद्र उभया अमित्रादासा बृताणी आर्या च शुर…….नृताम”
अर्थात- इंद्र तुम उन दोनों अमित्रो और दासो ,वृतो , आर्यों और दस्यु को कुल्हाडियो से जंगलो की तरह काट दो ।
यंहा आर्य कौन हैं जिसको काटने की बात की जा रही है?
जिन दासो,दस्यु आदि को काटने मारने की बात की जा रही है उनमे आर्य भी हैं,ये आर्य कौन हैं?
ध्यान रहे यंहा बुरे या ख़राब आर्यों की बात नहीं की जा रही बल्कि सभी आर्यों को काटने की बात की जा रही है ।
मुद्राराक्षस ने भी आर्यों और ब्राह्मणों को एक नहीं माना है वह कहता है की आर्य और ब्राहमणों में हमेशा युद्ध होता रहता था । ब्राह्मण के लिए आर्य कभी सम्माननीय नहीं रहा और न ही उल्लेखनीय। किसी भी ब्राह्मण ग्रन्थ में ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य को आर्य के रूप में चिन्हित नहीं किया गया । अगर आर्य शब्द आया भी है तो वह द्वेष के रूप में ।
यह माना जाता है की वेद आर्यों ने लिखे हैं पर यदि वेद उन्होंने लिखे हैं तो खुद उन्होंने अपने को क्यों शुद्रो , दस्यु , के समतुल्य रखे हैं जो की ब्राह्मणों के लिए हेय थे? वेदों आर्य प्रशंसा नहीं है?
इसलिए मुद्राराक्षस की इस बात पर बल मिलता है की आर्य और ब्राह्मण अलग अलग थे।
इसी प्रकार एक और उदहारण से समझिये ,अथर्ववेद 19/62/1 में भी कहा गया है की –
प्रिय माँ कृणु देवेषु ………. शुद्रे उत आर्ये”
अर्थात- हमें देवताओ का प्रिय बनाओ ,सबका प्रिय बनाओ, यंहा तक की शुद्र और आर्यों का भी प्रिय बनाओ।
अब यंहा ये आर्य कौन हैं? यदि आर्य और ब्राहमण एक ही हैं तो आर्यों को शुद्रो के समतुल्य क्यों रखा जा रहा है? जबकि यह सर्व मान्य है की ब्राहमण शुद्रो से उच्च वर्ण समझा गया है।
पतंजलि ने कहा है की आर्य बस्तियों में चंडाल आदि जातियां बाकायदा घर बना के रहती थी , जबकि वैदिक ब्राह्मण प्रभुत्व वाले क्षेत्रो में यह कदापि संभव नहीं था ।
अत: यह तय है की आर्य और ब्राहमण एक नहीं थे बल्कि भारत की ही कोई आदिनिवासी जाति रही होगी जैसे दस्यु, वृत, चंडाल आदि।
भारत में समय समय पर विभिन्न विदेसी जातियां आती रही और यंहा घुल मिल के विलीन हो गई पर ब्राहमण कभी भी भारतीय जनता में घुले मिले नहीं बल्कि स्वयं को सभी जातियो से सर्वश्रेष्ठ समझते रहे । जैसे मुस्लिम और ईसाई जाती भारत में आई पर यंहा के मूल जातियो में कभी नहीं घुल मिल पाई , इनका प्रथक अस्तित्व बना रहा ।
इसी लिए मुद्राराक्षस ने अपनी पुस्तक ” धर्म ग्रंथो का पुनर्गठन” ( पेज 10-13) में माना है की ब्राहमण,इसाई ,मुस्लिम एक ही विदेशी परम्परा के वंसज हैं अर्थात अब्रहम के वंसज हैं। अब्राहम को यहूदी, इसाई ,मुस्लिम पूजनीय मानते हैं , अब्राहम में भी ‘ब्रहम’ है और ब्राहमण में भी ‘ब्रह्म’।
इसके अलावा इन तीनो में ही अपनी धार्मिक श्रेष्ठता और जातिय अस्मिता का गौरवगान ज्यादा दिखाई देता है ।
ओ३म्
ऋग्वेद मण्डल 6 सूक्त 33 मन्त्र 3 का शुद्ध रूप हैः- ‘त्वं तां इन्द्रोभयां अमित्रान्दासा वृत्राण्यार्या च शूर। वधीर्वनेव सुधितेभिरत्कैरा पृत्सु दर्षि नृणां नृतम।।’ मन्त्रान्तर्गत प्रयुक्त पदों के अर्थः- हे (नृणाम्) मुखियाजनों में (नृतम) अत्यन्त मुखिया (शूर) दुष्टों के नाशक (इन्द्र) राजन्! (त्वम्) आप (तान) उन (अमित्रान्) दुष्ट सब को पीड़ा देने वाले और (आर्य्या) धर्मिष्ठ उत्तम जनों को (च) और (उभयान्) दो प्रकार के विभाग करके दुष्ट और पीड़ा देने वालों का (पृत्सु) संग्रामों में (वनेव) अग्नि जैसे वनों का वैसे (वधीः) नाश करिये और (सुधितेभिः) उत्तम प्रकार से तृप्त किये गये (अत्कैः) घोड़ों से (आ, दर्षि) विदीर्ण करते हो और धर्मिष्ठ उत्तम जनों की रक्षा करते हो तथा (दासा) देने योग्य (वृत्राणि) धनों को प्राप्त होते हो इससे विवेकी हो। इस मन्त्र का भावार्थः- जो राजा उत्तम, अनुत्तम, धार्मिक और अधार्मिकों का परीक्षा से विभाग करके उत्तमों की रक्षा करता और दुष्टों को दण्ड देता है वही सम्पूर्ण ऐश्वर्य को प्राप्त होता है। इस मन्त्र का देवता इन्द्र है तथा इस मन्त्र में राजा के कर्तव्यों का वर्णन किया गया है। हमने यह मन्त्रार्थ महर्षि दयानन्द सरस्वती जी का दिया है। विदेशी विद्वान प्रो. मैक्समूलर के अनुसार वेदों के विद्वानों की परम्परा महर्षि ब्रह्मा से आरम्भ होती है और महर्षि दयानन्द के ग्रन्थ ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका पर समाप्त होती है। वैदिक परम्परानुसार जो तर्क से भी सिद्ध है, के अनुसार चार वेद मनुष्यों के रचित नहीं अपितु इस संसार को रचने व चलाने वाले परमात्मा के द्वारा चार ऋषियों अग्नि, वायु, आदित्य व अंगिरा को प्रेरित ज्ञान हैं। आर्य शब्द में गुण-कर्म-स्वभावानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व शूद्र चारों वर्ण आते हैं। आर्य शब्द का वेदों में क्या अर्थ व आशय है, वह भी देखिये- जैसे ‘आर्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं वैसे ही मैं भी मानता हूं एवं जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्यविद्यादि, गुणयुक्त और आर्यावर्त्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं, उनको ‘आर्य’ कहते हैं। (स्वामी दयानन्द)। केशव जी द्वारा कही गई प्रत्येक बात का खण्डन किया जा सकता है परन्तु यह समय की बर्बादी लगता है। उन्होंने यह नहीं बताया कि वेद मन्त्र के अर्थ किस विद्वान ने किये हैं और क्या वह व्याकरण की दृष्टि एवं वेदार्थ परम्परा से प्रमाणित हैं। आपने जिन मुद्राराक्षस का उल्लेख किया है वह कोई वेदाचार्य व वेदों के प्रतिष्ठित विद्वान नहीं है। जिसकी मर्जी जो चाहे लिख दे जैसा कि श्री केशव जी लिख रहे हैं। हां, यदि सत्य जानने की इच्छा व भावना किंचित भी है, तो इसके लिए सत्यार्थ प्रकाश का निष्पक्ष होकर अध्ययन कीजिए। सत्य को जानना व मानना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य व धर्म है परन्तु आज के युग में यह नियम लोगों की कथनी में ही है, करनी में तो नाम मात्र के लोगों की ही है। ईश्वर हम सबको सद्बुद्धि दें और हम यथार्थ में सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग कर सकें।
मान्यवर, आपने जो मन्त्र दिया है और उसका स्वामी जी ने जो अर्थ किया है, वही सही लगता है.
यह लखनऊ वाला मुद्राराक्षस नामक लेखक परले दर्जे का धूर्त कंम्यूनिस्ट है, जो ९०% झूठ लिखता है. इसकी बातों को गंभीरता से लेना ही गलत है. केशव जी जैसे लेखक इनके लिखे को अंतिम सत्य मान लेते हैं, लेकिन जो सही अर्थ आपने दिया है, उसको ये समझने से भी इनकार कर देंगे.
इसलिए आपने सही लिखा है कि इनके कुतर्कों का खंडन करना समय की बर्बादी है. आपको बहुत बहुत धन्यवाद.
धन्यवाद श्री विजयजी। महर्षि दयानन्द के कुछ प्रासंगिक वाक्य हैं जिस पर सभी को ठण्डे मस्तिष्क से विचार करना चाहिये कारण कि प्रायः सभी यह गलती करते हैं। वह लिखते हैं -‘‘यद्यपि मैं आर्यावत्र्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूं तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर याथातथ्य प्रकाश करता हूं, वैसे ही दूसरे देश वा मतवालों के साथ भी वैसा ही वर्तता हूं। जैसा स्वदेशवालों के साथ मनुष्योेन्नति के विषय में वर्तता हूं, वैसा विदेशियों के साथ भी, तथा सब सज्जनों को भी वर्तना योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता तो जैसे आजकल के स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और बन्ध करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता, परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बहिः हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् होकर निर्बलों को दुःख देते और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य शरीर पाकर वैसा ही कर्म करते हैं, तो वे मनुष्य स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है, वही मनुष्य कहाता है। और जो स्वार्थवश होकर परहानि मात्र करता रहता है, वह पशुओं का बड़ा भाई है।
यह लेक्ल्ह भ्रमित करने वाला है. ब्राह्मण ग्रंथों को वेदों का ही विस्तार माना जाता है. आर्य कोई जाति नहीं थी. एक समुदाय था. बाद में लोग इस शंड का प्रयोग जाति के रूप में करने लगे. ब्राह्मण भी आर्य ही थे.
बहुत अच्छा लेख .
इसमें अच्छा क्या है, भाई साहब? मेरी टिप्पणी पढ़िए.