यशोदानंदन-३
महर्षि की बातें यशोदा जी बड़े ध्यान से सुन रही थीं। जैसे ही ऋषिवर ने अपना कथन समाप्त किया उनके मुखमंडल पर एक विशेष आभा प्रकट हुई। नेत्रों में एक चमक आ गई। अधरों पर एक पवित्र स्मित-रेखा ने स्थान बना लिया। परन्तु विह्वलता कम नहीं हुई। परिचारिकाओं की सहायता से वे पर्यंक पर ही उठकर बैठ गईं। बहुत साहस संजो कर उन्होंने महर्षि से प्रश्न किया —
“मुनिवर! नन्द जी कह रहे हैं कि श्रीकृष्ण मेरा पुत्र नहीं है। यह कैसे संभव है? प्रसव के पश्चात् जब मैंने नेत्र खोला तो वह मेरे पास लेटा हुआ हाथ-पांव चला रहा था। जैसे ही मैंने उसकी आँखों में आँखें डाली, वह जोर-जोर से रोने लगा। मैंने उसे अपनी गोद में उठाकर सीने से लगा लिया। मैंने अपने स्तनों का दूध उसे पिलाया। वह मेरा पुत्र है। आज अचानक वह देवकी का पुत्र कैसे हो गया? मुनिवर! आप इनको समझाइये। इनसे कहिए कि भविष्य में कभी भी ये नहीं कहेंगे कि कृष्ण मेरा पुत्र नहीं है। माँ से अधिक पुत्र के विषय में कौन जान सकता है? मैंने उसे जना है, अपने स्तनों का दूध पिलाया है, पाल-पोसकर इतना बड़ा किया है। जब से नन्द जी ने यह कहा है कि वह मेरा नहीं, देवकी का पुत्र है, मेरे शरीर के समस्त अंग-उपांगों ने काम करना बन्द कर दिया है। मेरा हृदय टूक-टूक हुआ जा रहा है। मेरी जीने की इच्छा समाप्त होती जा रही है। मैं कृष्ण से वियोग तो सह सकती हूं लेकिन यह नहीं सुन सकती कि वह मेरा पुत्र नहीं है। नन्द जी कभी ठिठोली में भी असत्य संभाषण नहीं करते। कृपया आप मुझे बताने का कष्ट करें कि सत्य क्या है?”
कुछ क्षण के लिये गर्गाचार्य की वाणी भी मौन हो गई। यशोदा के विह्वल मातृत्व को क्या उत्तर दें वे? कहना सरल है परन्तु अनावृत्त सत्य को सुनाना, सुनना और सहना कितना कठिन होता है, यह मुनिवर के सम्मुख था। नन्द बाबा ने बहुत साहस संजोकर ही यशोदा से कृष्ण के देवकी-पुत्र होने का सत्य बताया था लेकिन यशोदा का मातृत्व इसे स्वीकार करने के लिए कही से भी तैयार नहीं था। वह इतने बड़े आघात को सहने के लिये न तो मानसिक रूप से तैयार थी और न शारीरिक रूप से। पति के द्वारा विह्वलतापूर्वक अधीरता से कहे गए सत्य को उसने सुना जरुर था परन्तु स्वीकार नहीं किया था। वह चाहती थी कि कोई भी — ऋषि-मुनि, गोप-गोपियां, चिड़िया-चुड़ुंग, गाय-बछड़े, पेड़-पौधे, ताल-तलैया, खेत खलिहान, महल-झोपड़ी — कोई भी आकर कह जाय कि मथुरा से आने के पश्चात् नन्द जी ने जो सूचना दी थी, वह मिथ्या थी। कृष्ण को नौ महीने तक अपने उदर में रखा था, उससे संभाषण किया था, प्रसव-पीड़ा सही थी। अत्यधिक पीड़ा ने उसे अचेत कर दिया था और आँखें बंद हो गई थीं। परन्तु जब आँखें खुली तो उसने स्वयं देखा था — कृष्ण को हाथ-पांव मारते हुए। इतने बड़े सत्य को कोई कैसे नकार सकता है?
यशोदा ने जिस सत्य को देखा था, वह सत्य था लेकिन था तो वह आंशिक सत्य ही। परन्तु आंशिक सत्य ही सामान्य जन के जीवन का आधार होता है। पूर्ण सत्य समझा ही कितनों ने? जो सत्य का साक्षात्कार कर लेता है, वह बताने के लिये कभी आता भी है क्या? पूरी सृष्टि अर्ध सत्य को पूर्ण सत्य मान कल्पों से चल रही है। संभवतः सृष्टि के गतिमान रहने के लिए सत्य से अधिक अर्ध सत्य की आवश्यकता पड़ती है। माया-मोह, स्नेह-ममता, प्रेम-अनुराग का जीवन में क्या कोई स्थान नहीं है? श्रीकृष्ण तो सर्वज्ञाता हैं। एक वही तो हैं जिसे पूर्ण सत्य का ज्ञान है, तो फिर प्रस्थान के पूर्व इस सत्य का भान माँ यशोदा को क्यों नहीं कराया? क्यों उन्होंने पल-पल बल प्रदान किया माया-मोह, स्नेह-ममता और प्रेम-अनुराग के पाश को। कही वे भी तो विवश नहीं थे, माँ की ममता के सम्मुख? संभवतः वे भी साहस नहीं संजो पाए थे। माँ की ममता के सामने परब्रह्म भी परास्त हुआ था। यह सच है कि श्रीकृष्ण ने अनेक असुरों, दैत्यों और कंस को निर्णायक पराजय का स्वाद चखाया था, परन्तु वे पराजित भी हुए थे। माँ की ममता ने उन्हें बार-बार पराजित किया था। उन्हें झूठा आश्वासन देकर मथुरा जाना पड़ा। सत्य को घुमा-फिराकर कहना असत्य संभाषण ही माना जाता है। कैसी परीक्षा ले रहे हो गोपाल? माँ यशोदा को सत्य बताने के पूर्व यह जिह्वा तालू से चिपक क्यों नहीं जाती? नहीं, नहीं, मुझसे नहीं होगा यह दुष्कर कार्य। मेरे द्वारा सत्य के उद्घाटन के पश्चात्यशोदा के प्राण उनके शरीर में रह पायेंगे भी क्या? मैं अपने वचनों से विश्व की सर्वश्रेष्ठ माँ का वध नहीं कर सकता …। गर्गाचार्य सामना नहीं कर पाये मातु यशोदा का। उनके अधरों से कुछ अस्फुट शब्द निकले, परन्तु सुना किसी ने नहीं। वे पलटे और वापस जाने के लिए उद्यत हुए।
यशोदा ने उनकी राह रोक ली। कुछ तो ऐसा था जो मुनिवर बताना नहीं चाह रहे थे। आज यशोदा यह जानकर ही रहेगी कि सत्य क्या है? उसे भलीभाँति ज्ञात था कि गर्ग ॠषि परम सत्यवादी हैं। मुनि को पलायन करते देख सारे शिष्टाचार त्याग मातृशक्ति ने सम्मुख खड़े हो ऋषिवर की आँखों में आँखें डाल दृढ़ता से प्रश्न किया —
“मुनिवर! आप त्रिकालदर्शी और घोर सत्यवादी हैं। फिर भी मेरे प्रश्नों का उत्तर देने के बदले आप आँखें चुरा रहे हैं। मैं किसी प्रकार के भ्रम में जीवन व्यतीत करने से अच्छा सत्य सुनकर मृत्यु को प्राप्त करने में विश्वास करती हूं। मैं कृष्ण की माँ हूँ। आप मुझे सामान्य अबला नारी समझने की भूल ना करें। मैं उस कृष्ण की माँ हूँ जो कठिन से कठिन विपरीत परिस्थिति में भी न धैर्य खोता है, न विवेक, न साहस, न उत्साह। आप सुनाइये, मैं सत्य का सामना करूंगी।”
यह कड़ी भी रोचक रही !